________________ . इस 'पद्धति' को देखते हुए यह निश्चित कहा जा सकता है कि यह टीका विद्वद्भोग्या नहीं है किन्तु बालाबोध स्वरूपा ही है। प्रशस्ति में लेखक ने रचना संवत् का उल्लेख नहीं किया है किन्तु " श्रीमद्विजयदेवाख्यः..... * साम्प्रतं राजन्ते।" उल्लेख से यह निश्चित है कि सं. 1672 के पश्चात् की यह रचना है। प्रस्तुत प्रति के 124 पत्र हैं और अनुमानतः १८वीं शती के पूर्वार्ध में लिखित है। पुस्तक मेरे संग्रह में ही है। [श्री जैन सत्यप्रकाश, वर्ष-१९, अंक-१२] 000 लेख संग्रह 113