SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री श्रीवल्लभोपाध्याय प्रणीता मातृका-श्लोकमाला स्वर एवं व्यंजनों पर आधारित अक्षर ही अक्षरमय जगत है। सारी सृष्टि ही अक्षरमय है। यही अक्षर मातृका, अक्षरमाला, वर्णमाला और भाषा में बारहखड़ी इत्यादि शब्दों से अभिहित है। स्वर 16 माने गये हैं - अ, आ, इ, ई, उ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: और व्यंजन 33 माने गये हैं:- क्, ख्, ग, घ, ङ्, च्, छ्, ज्, झ, ञ्, ट, ठ, ड्, ढ, ण, त्, थ्, द्, ध्, न्, प्, फ्, ब्, भ्, म्, य, र, ल, व, श्, ष्, स्, ह तथा संयुक्ताक्षर अनेक होते हुए भी तीन ही ग्रहण किये जाते है :- क्ष्, , , ये ही अक्षर संयुक्त होकर बीजाक्षर मंत्र भी कहलाते हैं। वर्तमान समय में हिन्दी भाषा लिपि में टंकण एवं मुद्रण आदि की . . सुविधा की दृष्टि से ऋ, लु, लू, इन तीनों वर्गों का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं होता है। मातृका से सम्बन्धित संस्कृत भाषा में रचित जैन लेखकों की कुछ ही कृतियाँ प्राप्त होती हैं, जिनमें आचार्य सिद्धसेन रचित सिद्धमातृका सर्वोत्तम कृति है। श्री श्रीवल्लभोपाध्याय प्रणीत मातृकाश्लोक-माला भी इसी परम्परा की रचना है। कवि परिचय - खरतरगच्छीय प्रथम श्री जिनराजसूरि के शिष्य प्रसिद्ध विद्वान जयसागरोपाध्याय की परम्परा में श्रीवल्लभोपाध्याय हुए हैं। जयसागरोपाध्याय श्रीजिनभद्रसूरि की आज्ञा में सम्मिलित हो गये थे अतः जिनभद्रसूरि की परम्परा में माने जाते हैं। जयसागरोपाध्याय के भाई दरड़ा गोत्रीय मांडलिक ने आबू स्थित खरतरवसही का निर्माण करवाया था और उसकी प्रतिष्ठा वि० सं० 1515 आषाढ़ बदी 1 को श्री जिनभद्रसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने करवाई थी। जयसागरोपाध्याय की शिष्यसंतति में उपाध्याय रत्नचन्द्र , उपाध्याय भक्तिलाभ, उपाध्याय चारित्रसार > उपाध्याय भानुमेरु > उपाध्याय ज्ञानविमल के शिष्य श्रीवल्लभ थे। ज्ञानविमलोपाध्याय भी व्याकरण, कोश-अनेकार्थी एवं साहित्य के उद्भट विद्वान् थे। इनके द्वारा निर्मित महेश्वर कवि के शब्दप्रभेद पर टीका' प्राप्त होती है। इस टीका की रचना वि०सं० 1654 में बीकानेर में हुई थी। श्रीवल्लभ के टीका-ग्रंथों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है ये राजस्थान प्रदेश के निवासी थे। श्रीवल्लभ की 'वल्लभनंदी' को देखते हुए 1630 एवं 1640 के मध्य में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने इनको दीक्षित किया होगा। इनकी प्रथम कृति शिलोञ्छनाममाला-टीका सम्वत् 1654 की है। वि०सं० 1655 में रचित ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी में इनके नाम के साथ 'गणि' पद का प्रयोग मिलता है और 1661 में रचित कृतियों में वाचनाचार्य पद का उल्लेख भी मिलता है। संघपति शिवासोमजी द्वारा शत्रुजय तीर्थ में निर्मापित चौमुखजी की ढूंक (खरतरवसही की प्रतिष्ठा सम्वत् 1675 में हुई थी।) इस प्रतिष्ठा में श्रीवल्लभ . सम्मिलित थे। विजयदेव महात्म्य की रचना सम्वत् 1687 के आस-पास हुई थी। अत: इनका साहित्यसृजन काल 1654 से 1687 तक माना जा सकता है। 114 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy