________________ गर्भापहार जैसी घटना भी अन्य चरित्रों के साथ सहज भाव से वर्णित है:. .. देवावतारं हरिणेक्षितं प्राग, द्राग् नैगमेषी नृपधाम नीत्वा। तं स्वादिवृद्धया शुभ वर्द्धमानं, सुरोप्यनंसीदपहृत्य मानम् // 1-49 // इन्द्र ने पहिले दिव्यांश से पूर्ण अवतीर्ण महापुरुषों को देखा और नैगमेषी नामक देव ने शीघ्र नृपधाम नीत्वा राजाओं के घरों में आकर धनादि की वृद्धि की। प्रारम्भ से ही ज्ञानादि गुणों से पूर्ण महापुरुषों को देखकर, मान को त्याग कर सुरों ने भी नमस्कार किया। .. महावीर के पक्ष में - नृपधाम नीत्वा ऋषभदत्त के घर से सिद्धार्थ के घर में रखकर, धनधान्यादि की वृद्धि कर नैगमेषी ने मान त्याग कर, वर्धमान संज्ञक ज्ञानादिगुण पूर्ण तीर्थंकर को नमस्कार किया। सातों ही नायकों की जन्मतिथि का वर्णन भी कवि ने एक ही पद्य में बड़ी सफलता के साथ किया है : ज्येष्ठेऽसिते विश्वहिते सुचैत्रे, वसुप्रमे शुद्धनभोर्थमेये। __ * साङ्के दशाहे दिवसे सपौषे, जनिर्जितस्याऽजनि वातदोषे // 2-16 // दोष रहित शांतिनाथ का ज्येष्ठ कृष्ण विश्वहित त्रयोदशी को, ऋषभनाथ का वसु चैत्रकृष्ण 8 को, नेमिनाथ का शुद्धनभोऽर्थमेये श्रावण पंचमी को, पार्श्वनाथ का पोषे दशाहे पौष दशमी को, महावीर का चैत्रेऽसिते विश्वहिते चैत्रशुक्ला त्रयोदशी को, रामचन्द्र का चैत्रेसिते सांके चैत्र शुक्ला नवमी को और कृष्ण का असिते वसुप्रमे भाद्रकृष्णा अष्टमी को, रागादि विजेताओं का जन्म हुआ। र अनेकार्थ और श्लेमार्थ प्रभावित अत्यन्त कठिन रचना को भी कवि ने अपने प्रगाढ़ पाण्डित्य से सुललित और पठनीय बना दिया है। इस मूल ग्रन्थ का प्रथम संस्करण (स्वर्गीय न्यायतीर्थ व्याकरणतीर्थ पण्डित हरगोविन्ददासजी ने सम्पादन कर) जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, वाराणसी से सन् 1917 में प्रकाशित हुआ था। इस कठिनतम काव्य पर टीका का प्रणयन भी सहज नहीं था किन्तु आचार्य श्री विजयअमृतसूरिजी ने सरणी टीका लिखकर इसको सरस और पठन योग्य बना दिया है। यह टीका ग्रन्थ जैन साहित्यवर्धक सभा सूरत से वि. सं. 2000 में प्रकाशित हुआ था। पाठक इस टीका के माध्यम से कवि के हार्द तक पहुँचने में सफल होंगे। [अनुसंधान अंक-३५] 000 157 लेख संग्रह