________________ 7. मारी - 125 योजन तक अकालमरण एवं औत्पातिक मरण नहीं होता है। 8. अतिवृष्टि - 125 योजन तक अतिवृष्टि नहीं होती है। 9. अवृष्टि - 125 योजन तक अवृष्टि नहीं होती है। 10. दुर्भिक्ष - 125 योजन तक दुर्भिक्ष नहीं होता है। 11. भय - 125 योजन परचक्र का भय नहीं होता है। देवकृत 19 अतिशय 1. धर्मचक्र - आकाश मे धर्मचक्र चलता है। 2. चमर - भगवान के दोनों तरफ चामर वींझते रहते हैं। 3. सिंहासन - पादपीठिकासहित स्फटिक रत्न का सिंहासन होता है। 4. छत्रत्रय - तीर्थंकर के सिर पर तीन छत्र सुशोभित होते हैं। 5. रत्नमय ध्वज - रत्नमय ध्वजा आगे चलती है। 6. स्वर्ण कमल - विहार करते हुए स्वर्ण कमलों पर पैर रखते हैं। 7. वप्रत्रय - समवसरण की रचना होती है जिसमें रजत, स्वर्ण और रत्न के तीन प्रकार ... के गढ़ होते हैं। 8. चतुर्मुखाङ्गता - समवसरण में तीर्थंकर के चार मुख होते हैं। 9. चैत्यद्रुम - अशोक वृक्ष के नीचे भगवान विराजमान होते हैं। 10. कण्टक - भगवान विहार करते हैं तो कण्टक भी अधोमुखी होते हैं। 11. द्रुमानती - विहार करने के समय वृक्ष अत्यन्त झुक जाते हैं। 12. दुंदुभीनाद - देव दुंदुभी बजाते रहते हैं। 13. वात - अनुकूल सुख प्रदान करे ऐसी वायु का संचालन होता रहता है। 14. शकुन - पक्षी भी तीन प्रदक्षिणा करते हैं। 15. गन्धाम्बुवर्त - सुगन्धित पानी की वर्षा होती है। 16. बहुवर्ण पुष्पवृष्टि - पंचवर्ण वाले फूलों की वृष्टि होती रहती है। 17. कच, श्मश्रु, नख-प्रवृद्धि - बाल, दाढ़ी, मूंछ और नखों की वृद्धि नहीं होती है। 18. अमर्त्यनिकायकोटि - तीर्थंकर की सेवा में कम से कम एक करोड़ देवता रहते हैं। 19. ऋतु - सर्वदा सुखानुकूल षड्ऋतुएँ रहती हैं। प्रस्तुत कृति में रचनाकार ने जन्मजात केवलज्ञान और देवकृत अतिशयों का विभेद नहीं किया है। साथ ही क्रम भी कुछ इधर-उधर हैं। फिर भी अपभ्रंश भाषा की यह कृति सुन्दर और सुप्रशस्त है। वीनती इस प्रकार है:358 लेख संग्रह