________________ इनके अतिरिक्त स्वतन्त्र कृति के रूप में 'वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति जिनस्तुति' प्राप्त होती है। इसमें 24 तीर्थंकरों की स्तुति के साथ अंतिम गौतम गणधर की भी स्तुति प्राप्त है / एकाक्षर से प्रारम्भ कर 25 अक्षरों तक के विभिन्न छन्दों में प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति की है जो कि इसके परिशिष्ट में दी छन्द-सूची से स्पष्ट है / छन्द-शास्त्र के ये अजोड़ विद्वान् थे। इन छन्दों में कई छन्द ऐसे हैं जो कि प्रायः प्रयोग में नहीं आते हैं। प्रान्त पुष्पिका में अनुप्रासालङ्कारमय्यश्च' अर्थात् प्रत्येक स्तुति में अनुप्रासालङ्कार का विशेष रूप से प्रयोग किया है। प्रत्येक स्तुति का अवलोकन किया जाए तो प्रत्येक श्लोक के पहले और दूसरे चरण में, तीसरे और चौथे चरण में एकाक्षर या व्यक्षर में अनुप्रास का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण के रूप में देखिए - विमलनाथ की स्तुति प्रथम पद्य, प्रथम चरण 'नमामः' और दूसरे चरण में रमामः 'मामः' का प्रयोग है / इसी स्तुति में दूसरे श्लोक के तीसरे-चौथे श्लोक में 'वन्ताः' का प्रयोग है। इस प्रकार प्रत्येक पद्य के समग्र चरणों का अवलोकन करें तो अन्त्यानुप्रास की छटा सर्वत्र दृष्टिगोचर होगी। कवि का अभीष्ट भी अनुप्रासालङ्कार प्रतीत होता है। श्लेष, उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकार भी स्थान-स्थान पर मुक्ताओं की तरह गुथे हुए नजर आते हैं। इस कृति की प्रतियाँ भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। विक्रम सम्वत् 2001 में श्रद्धेय गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी महाराज ने जामनगर में रहते हुए इसकी पाण्डुलिपि तैयार की थी। उनकी कृपा थी कि स्वलिखित प्रति मुझे भिजवा दी, वही आज प्रकाशित की जा रही है। गणिवर्य लिखित पाण्डुलिपि में किस भण्डार की प्रति से उन्होंने ने इसकी प्रतिलिपि की है, इसका संकेत न होने की वजह से यह कहने में असमर्थता है कि यह किस भण्डार की प्रति है? इन स्तुतियों में प्रातः एवं सायं प्रतिक्रमण में इसका उपयोग किया जा सकता है। पाठकों के रसास्वादन के लिए प्रस्तुति कृति प्रस्तुत है : श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति-जिनस्तुतिः [पंडित श्री 5 श्रीलक्ष्मीकल्लोलगणि-चरणकमलेभ्यो नमः] 1. श्रीऋषभजिनस्तुतिः, (श्री छन्दसा) मेऽघं / स्याऽर्हन् // 1 // नोऽजाः / स्युर्यैः // 2 // नोऽकं / नव्यम् // 3 // गी: शं / वोऽव्यात् // 4 // 2. श्रीअजितजिनस्तुतिः (स्त्रीछन्दसा) अन्यः, सार्वः। सिद्धिं, दद्यात् // 1 // सार्वाः, सर्वे। सातं, दद्युः॥२॥ सार्वा, वाचः। नः शं, कुर्युः // 3 // वाणी, देवी। लक्ष्य, भूयात् // 4 // लेख संग्रह 69