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________________ लक्ष्मीकल्लोलगणि - स्तुतिकार ने प्रान्त पुष्पिका में "उ. श्री हर्षकल्लोलप्रसादात्' लिखा है। अत: इससे एवं अन्य प्रमाणों से निश्चित है कि ये श्री हर्षकल्लोलगणि के शिष्य थे। आचार्य सोमदेवसूरि की परम्परा से कमल-कलश और निगम-मत निकले थे। सोमदेवसूरि तपागच्छीय सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे, किन्तु उन्होंने 1522 के लेख में लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य भी लिखा है। इनके शिष्य रत्नमण्डनसूरि हुए। रत्नमण्डनसूरि की परम्परा में श्री आगममण्डनसूरि के प्रशिष्य और श्री हर्षकल्लोलगणि के शिष्य लक्ष्मीकल्लोगगणि थे। इनके अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। इनका परिचय, जन्म, दीक्षा, पद आदि भी अज्ञात हैं। लक्ष्मीकल्लोलगणि आगम-साहित्य और काव्य-साहित्य शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे। आगम ग्रन्थों पर इनकी दो टीकाएँ प्राप्त होती हैं: 1. आचाराङ्ग सूत्र तत्त्वावगमा टीका प्राप्त होती है जिसका रचना सम्वत् 1596 दिया हुआ है। जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास में टीका के स्थान पर अवचूर्णी लिखा है। 2. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र 'मुग्धावबोध' टीका' में रचना सम्वत् प्राप्त नहीं है। श्री देशाई के मतानुसार सोमविमलसूरि के विजयराज्य में विक्रम सम्वत् 1597 - 1637 के मध्य रचना की गई है। इससे इनका साहित्य रचनाकाल 1590 से 1640 तक निर्धारित किया जा सकता है। आगम साहित्य पर टीका रचना से यह स्पष्ट है कि आगम साहित्य पर इनका चिन्तन और मनन उच्च कोटि का था। इन दोनों टीकाओं के अतिरिक्त स्वतन्त्र कृतियों के रूप में कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते हैं वे निम्न हैं:११९९ जिन स्तव (समस्याष्टक) / 1342 साधारण जिन स्तवः (समस्याष्टक) 1440 ऋषभदेव स्तव 1772 महावीर स्तोत्र (सावचूरि) 5089 समस्याष्टक 6232 साधारण जिन स्तव (पराग शब्द के 108 अर्थ) ये सारे क्रमांक कैटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्कृप्ट मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संग्रह भाग-१, 2 लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद के दिए गये हैं। चमत्कृति प्रधान इन स्तोत्रों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि श्री लक्ष्मीकल्लोलोपाध्याय साहित्य और लक्षणशास्त्र के भी उद्भट विद्वान् थे। 1. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग 3, पृष्ठ 560 2. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग 3, पृष्ठ 566 3. जिनरत्नकोश : पृष्ठ 24, इसके अनुसार इसकी प्रति Adescriptive Catalogue of the Mss. in the B.B.R.A.S. ____Vol. No. 1397 4. पृष्ठ 520, पैरा नं० 761 जिनरत्नकोश : पृष्ठ 147, इसके अनुसार इसकी प्रति Adcscriptive Catalogucofthe Mss. in thcB.B.R.A.S. Vol.No. 1473 6. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 520, पैरा नं०७६१ लेख संग्रह 68
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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