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________________ श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्धमानाक्षरा चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः भारतीय साहित्य की अनेक विशेषताओं में एक प्रमुख विशेषता उसका विशाल स्तोत्र साहित्य भी है। स्तोत्र साहित्य भारतीय साहित्य का हृदय कहा जा सकता है। सभी जातियों ने स्तोत्र रचना में अपना बहुमूल्य योग दिया है। बौद्धों ने बुद्ध भगवान् की, जैनों ने अर्हत् की, वैष्णवों ने विष्णु व उनके अनेक रूपों की, शैवों ने शिव की, शाक्तों ने भगवती दुर्गा की और अन्य लोगों ने अपने इष्टदेवों की स्तुति मधुरतम गीयमान स्तोत्रों द्वारा की है, आत्म-निवेदन किया है, श्रद्धा के प्रसून अर्पित किये हैं। ___ स्तोत्र द्वारा भक्त-हृदय स्वच्छन्दतापूर्वक अपने भावों को इष्टदेव के सम्मुख प्रस्तुत करता है। हृदय का आवरणरहित स्वरूप उसमें देखा जा सकता है। निरावृत्त व मुक्त-हृदय का आत्म-निवेदन ऐसी भाषा में अभिव्यक्त होता है, जिसे भाषा न जानने वाला भी किसी-न-किसी तरह समझ लेता है। स्तोता की भाषा विशुद्ध मानव-हृदय की भाषा होती है जिस पर बुद्धि व तज्जन्य प्रपंचों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्तोता की मधुर अनुभूतियों को स्वतः ही मधुरतम शब्द मिल जाते हैं जिसके लिए रचना-कौशल की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी अनुभूति की सघनता की। पावस-ऋतु में जैसे जीवनदायक मेघों की * फुहार पड़ते ही बीजों में अंकुर उत्पन्न होने लगते हैं, उसी तरह सघन-अनुभूतियाँ मधुरतम शब्दों में मूर्त होने लगती हैं। इस कार्य में किसी तरह के प्रयत्नों का कोई हाथ नहीं होता। जैन मनीषि-पुंगवों ने भगवत्-स्तवना करने में दो विधाएँ अपनाई हैं - 1. स्तोत्र, 2. स्तुति। 1. स्तोत्र - किसी तीर्थंकर विशेष की या समन्वित समस्त तीर्थंकरों की या किसी तीर्थस्थित तीर्थंकर विशेष की स्तवना करते हुए जो हृदय के उद्गार प्रकट होते हैं, वे स्तोत्र कहलाते है। इन स्तोत्रों के माध्यम से अनेकान्त स्याद्वाद की प्ररूपणा, भगवान् की देशना अथवा दार्शनिक विवेचन का स्वरूप चिन्तन भी होता है। भगवत् गुणों का वर्णन करते हुए अष्ट महाप्रातिहार्य, 34 अतिशय, 35 वाणी इत्यादि का भी समावेश किया जाता है। भगवान् के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपनी लघुता भी प्रदर्शित की जाती है और स्वकृत पापों की आत्मगर्दा भी। 2. स्तुति - स्तुति यह केवल 4 पद्यों की होती है। प्रथम पद्य में किसी तीर्थंकर विशेष की या सामान्य जिन की, दूसरे पद्य में समस्त तीर्थंकरों की, तीसरे पद्य में भगवत् प्ररूपित द्वादशांगी आगम की और चतुर्थ पद्य में तीर्थंकर विशेष के शासन देवता की। इन लक्षणों पर आधारित कई सामान्य स्तुतियाँ भी प्राप्त होती हैं और कई विशिष्ट स्तुतियाँ भी। जिसमें यमक और श्लेषालंकार आदि का छन्दवैविध्य के साथ उक्तिवैचित्र्य का समावेश होता है, वे विशेष कहलाती हैं। आचार्य बप्पभट्टिसूरि और शोभनमुनि आदि का स्तुति साहित्य विशिष्ट कोटि में ही आता है। श्री भुवनहिताचार्य आदि रचित स्तुतियों में छन्दवैविध्य पाया जाता है। बढ़ते हुए अक्षरों के साथ छन्दों में रचना करना वैदुष्य का सूचक है ही। श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचित चतुर्विंशतिस्तुति भी इसी विधा की रचना है। 'लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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