________________ - 2. नासिका उद्भूत पर्याय भी स्वीकार नहीं किए जा सकते, क्योंकि यह त्रिइन्द्रिय, पंचेन्द्रीय जीवों में भी संभव होती है। मनुष्यों में शोभन और अशोभन होती है। चन्द्र, सूर्य, स्वरोदय शास्त्र आदि से नासिका स्वर भी अनेक प्रकार के होते हैं, अतः यह भी सम्भव नहीं है। 3. संगीत शास्त्र में निषाद आदि 7 स्वर माने गये है, अत: यह उसके अन्तर्गत भी नहीं आता। 4. उदात्त अनुदात्त प्लुत की दृष्टि से यह भी सम्भव नहीं है। . 5. विवक्षित कार्यावबोधक संज्ञा प्रतिपादक भी नहीं है। इसको सिद्ध करने के लिए नरपतिदिनचर्या ने 16 स्वर स्वीकार किए हैं, किन्तु अनुभूति स्वरूपाचार्य ने सारश्वत व्याकरण में 'अइउऋलुसमानाः' 'उभये स्वराः' 'ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदाः स्वर्णा' ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि का प्रतिपादन करते हुए 14 ही स्वर स्थापित किए हैं, वे हैं:- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ, इन स्वरों को स्थापित करने के लिए और सारश्वत व्याकरण को महत्ता देते हुए पाणिनि व्याकरण, कालापक व्याकरण, सिद्धहेम व्याकरण, काव्यकल्पलता, अनेकार्थसंग्रह, विश्वप्रकाश, वर्ण निघण्टु, पाणिनि शिक्षा आदि के प्रमाण दिए हैं / ल की दीर्घता को सिद्ध करते हुए पाणिनि व्याकरण का आश्रय लिया है और रामचन्द्र और वासुदेव आदि के मत को अस्वीकार किया है। अर्थात् श्रीवल्लभोपाध्याय स्वर 16 या 21 नहीं मानते हैं अपितु 14 ही मानकर उसकी स्थापना भी करते हैं। रचना-काल प्रस्तुत लघु कृति का नाम श्रीवल्लभोपाध्याय ने चतुर्दशस्वरस्थापन वादस्थल ही रखा है। अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है:- खरतरगच्छ में श्री जिनराजसूरि के विजयराज्य में उपाध्याय ज्ञान विमल के शिष्य 'श्रीवल्लभोपाध्याय ने इस वाद की रचना की है। श्री जिनराजसूरिजी संवत् 1674 में गच्छनायक बने थे अतः - यह रचना भी संवत् 1674 के बाद की है। ॥एँ नमः॥ श्रीसिद्धी भवतान्तरां भगवती भास्वत्प्रसादोदयाद्, वाचां चञ्चुरचातुरी स्फुरतु च प्रज्ञावदाश्चर्यदा। . नव्यग्रन्थसमर्थनोद्यतमति' प्रत्यक्षवाचस्पते विद्वत्पुंस इहाशु शस्यमनसस्तच्छ्रोतु कामस्य च॥१॥ सन्ति स्वराः के कति च प्रतीताः, सारस्वतव्याकरणोक्तयुक्त्या। समस्तशास्त्रार्थविचारवेत्ता, कश्चिद् विपश्चिद् परिपृच्छतीति॥२॥ __पुरातनव्याकरणाद्यनेकग्रन्थानुसारेण सदादरेण। तदुत्तरं स्पष्टतया करोति, श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय॥३॥ ___ इह केचिद् अहङ्कारशिखरिशिखां समारूढाः सारासारविचारकरण-चातुरीव्यामूढाः कूर्चालसरस्वतीति विरुदमात्मनः पाठयन्तः स्वगल्लझल्लरी-झात्कोरण अविद्यानटीं नाटयन्तः सकलशाब्दिकचक्रचक्रवर्त्तिचूडामणिमात्मानं 1. मतिं कै / 2. तद्यथा पाठोऽधिक: कै लेख संग्रह 245