SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अविद-पद-शतार्थी (सत्रहवीं शताब्दी की एक अप्रकाशित कृति का परिचय) इस अनेकार्थी अविद पदार्थमाला के प्रणेता हैं खरतरगच्छीय आद्यपक्षी शाखा के प्रौढ़ विद्वान् उपाध्याय विनयसागर / इसमें मङ्गलाचरण और उपसंहार सहित 36 पद हैं। इसके ऊपर विनयसागर की स्वोपज्ञ टीका है। लेखक ने इसका रचना समय इसमें नहीं लिखा है परन्तु टीका की प्रशस्ति में प्रश्नप्रबोध का उल्लेख किया है जिसकी 1667 में लेखक द्वारा स्वयं लिखित प्रति प्राप्त है। अत: अनुमान है कि इसकी रचना भी सं० 1667 के पश्चात् हुई होगी। मूल आ. - श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वरचरणाम्भोजं नमाम्यहं भक्त्या। लब्ध्वा प्रसादमालां, श्रीमज्जिनकुशलसूरीणाम्॥१॥ श्रीमत्श्रीखरतरगण-युगवर श्रीजिनहर्षसूरयोऽभूवन्। श्रीमान्हेमनिधानः, पूज्यस्तत्पट्टकमलमार्तण्डः // 2 // श्रीमन्मेदऋषीन्द्रास्तच्छिष्याः सर्वसाधुगणमुख्याः।. तत्पट्टाम्बरदिनकरतुल्याः श्री-मानकीर्त्तयो गुरवः॥ 3 // तत्सिंहासनपूर्वाद्रिध्वान्तारिश्च सुमतिकलशोऽस्ति। स्पष्टानविदपदार्थांस्तत्सुनुर्विनयसागरो लिखति॥ 4 // मू. अं. - आनन्दाय स्वमित्राणां, विषादाय च विद्विषाम्। लिलेखार्थान् शतार्थोऽमून्, विद्वान् विनयसागरः॥ 36 // टीकाकार - मङ्गलाचरण नमामि श्रीमहावीरं, गौतमस्वामिनं तथा। श्रीसद्गुरुपदाम्भोजं, देवीं चैव सरस्वतीम्॥१॥ रत्नाकर इवाख्यातः श्रीमत्खरतरो गणः। तत्रासीद् विश्रुतो जैन-कुशलाः सूरिराट् गुरुः॥२॥ तत्प्रसादं समासाद्य मुनिर्विनयसागरः। सर्वेषामेव प्रश्नानां, उत्तरं दातुमर्हति॥३॥ अस्ति दिल्ली महाराजधानी नगरमुत्तमम्। तत्राऽहं बहुधा पुष्टः, केनचित्प्रतिवादिना॥ 4 // यदि किञ्चित् तव ज्ञानमस्ति शब्दानुशासने। तदाविदपदार्थांस्तान् व्याकुरु प्रथमं भवान्॥५॥ तेनाहूत इति प्रायो द्विपेनेव प्रतिद्विपः। मल्लेनेव महामल्ल, करीन्द्रेणैव केशरी // 6 // लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy