________________ चाणूरेणेव गोविन्दः, कर्णेनेव धनञ्जयः। लक्ष्मणो रावणेनेव वादीव प्रतिवादिना // 7 // महायोधा महेनेव. मनसा हर्षितोऽभवम। अमूनर्थांस्तनोम्युच्चैः, सज्जनाः शृणुताऽधुना॥८॥ टीकाकार प्रशस्ति: प्रश्नप्रबोधामलंकृति यष्टीकां तथा राघवपाण्डवीयाम्। काव्यं नवीनं नलवर्णनं चादित्यावतारस्तवनं वितेने॥१॥ श्रीपार्श्वनाथस्तवनस्य टीका, व्याख्यां विदग्धस्य च राक्षसस्य। तस्योत्तमां श्रीविनयाम्बुराशेरिमां कृतिं पश्यतु सज्जनोऽपि॥२॥ इति श्री अविदपदस्याष्टादशाधिकशतप्रश्नस्य टीका अविदार्थमालाभिधा विनयसागरमुनिना विरचिता समाप्तिमगमत्। x आद्यान्त अवलोकन से आपकी गुरुपरम्परा का वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है - जिनहर्षसूरि हेमनिधान (डूडरर्षि)२ मेद ऋषि मानकीर्ति देवकलश सुमतिकलश विनयसागर . लेखक पुस्तिका की रचना का उद्देश्य कहता है कि दिल्ली नाम की राजधानी में किसी प्रतिवादी ने कहा कि "यदि आपका शब्दानुशासन (व्याकरण शास्त्र) में कुछ भी ज्ञान है तो अविद शब्द की व्याख्या करो" उसकी यह चुनौती स्वीकार करके प्रतिवादी का गर्वमथन करने के लिए, मल्ल के सम्मुख महामल्ल, 1. जिनगुणप्रभसूरि के पट्टधर, जिनहर्पसूरि थे। आपके माता-पिता का नाम भगतादे और भादोसा था। भण्डारी नारायण सा ने आपका पट्टाभिषेक महोत्सव किया था। सं० 1725 चै० वा० 9 को आपका स्वर्गवास हो गया था। 2. वैराग्यसौभाग्यसुधानिपोऽभूच्छ्रीडूडरर्पिः सुगुरुगरीयान्। (विदग्धमुखमंडन टीका) 3. उभौ शिष्यौ विराजेते, तस्य क्षितिपवन्दितौ। श्रीमान् देवकलशश्च, सुमते: कलशोऽपरः॥ 4 // (विदग्धमुखमण्डन टीका) 4. सुमतिकलश के सम्बन्ध में विशेष ज्ञान नहीं है परन्तु विदग्ध मुख मंडन की टीका से मालूम होता है कि नरेश रामदेव आपके भक्त थे, और आप उसकी राजसभा में अलंकारभूत विद्वान् : यंस श्रीरामदेवः क्षितिपतितरुणिर्मागधिः स्तौति सम्यक्, यस्याङ्गं वीक्ष्य लज्जाकुलनिजहृदयोऽनङ्गतामाप कामः। सङ्घस्याग्रे सुधीभिः द्विजजिनमुनिभिः सङ्कलायां सभायां, पृथ्वीमेतां मुनीन्द्रः स सुमतिकलश: कीर्तिशुभ्रीकरोति // लेख संग्रह 125