________________ प्रकाशकीय "सत्पण्डितो ह्येव चिरत्नमद्धरेत" (पुन्यश्री महाकाव्य सर्ग -2) पण्डितपुरुषों की सदा ही श्रुत के समुद्धार की भावना होती है / चाहे वह श्रुत कोई भी दर्शन या कोई भी गच्छ की भावनाओं को पुष्ट करता हो / उनकी दृष्टि में विद्वान की और विद्वत्ता की अच्छी कदर होती है। हमारे संघ के परमोपकारी शासनसम्राट् प. पू. आचार्य श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी म. की परंपरा में जिनशासनशणगार प. पू. आ. श्री विजयचंद्रोदयसूरीश्वरजी म. एवं सूरिमंत्रसमाराधक प. पू. आ. श्री विजयअशोकचंद्रसूरीश्वरजी म. के शिष्य विद्वद्वर्य प. पू. आ. .श्री विजयसोमचंद्रसूरीश्वरजी म. की शुभ प्रेरणां से महोपाध्याय विनयसागरजी के लेखों का संग्रह प्रकाशित करने का सुवर्ण अवसर हमें मिला है / लेखक महोदयश्री ने स्वपरगच्छों के भिन्न भिन्न लेखों का इस ग्रंथ में संकलन किया है / जैन सत्य प्रकाश, अनुसंधान जैसे साहित्य जगत के श्रेष्ठ मासिकों में इन लेखों का प्रकाशन किया गया था / संशोधकों की आवश्यक्ता एवं नये संपादकों की उपयोगीता को ध्यान में रखकर श्री संघने प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशन करने का निर्णय किया / पूज्यश्री हमें पुनः पुनः ऐसे बहुमूल्य ग्रंथों का प्रकाशन करने का अवसर प्रदान करें। NA रांदेर रोड जैन संघ, सुरत