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________________ लेखसंग्रह एक बहुमूल्य प्रकाशन विद्वद्वर्य, महो. विनयसागरजी ने अथाग परिश्रम कर विभिन्न विषयों के अनेक लेख लिखे / जैन सत्यप्रकाश, अनुसंधान जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं के माध्यम से उन लेखों का प्रकाशन हुआ / विद्वद् वर्ग में उन लेखों की उपादेयता खुब रही / उन लेखों को संग्रहीत कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का सुझाव मिला / श्री धर्मनाथजी जैन मंदिरजी ट्रस्ट (सुरत ) एवं सूरिपदप्रदान समिति की उदारता से उन लेखों का संग्रह करके ग्रंथ के रूप में प्रकाशन करने का निर्णय किया गया / प.पू.पं. श्री श्रमणचंद्रवि., पं. श्रीचंद्रवि., पं. निर्मलचंद्रविजयजी के आचार्यपदप्रदान के अवसर पर आज यह ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है / वह बडे आनंद की बात है। कार्य व्यस्तता के कारण हम इन लेखों का अवगाहन न कर शके यह बात यहां उल्लेखनीय है। महो. विनयसागरजी वयस्क होते हुए भी जो श्रुतभक्ति कर रहे है / उनकी खूब खूब अनुमोदना एवं पुस्तक की सारी जवाबदारी निभाने के लिए मंजुलभाई एवं भरत ग्राफिक्स वाले भरतभाई एवं महेन्द्रभाई दोनों को धन्यवाद... आ. श्री विजयसोमचंद्रसूरिजी - लेख संग्रह प्रथम भाग में मेरे द्वारा समय-समय पर लिखित लेखों का संग्रह है। लेखों में कुछ लेख कवियों के जीवन से संबंधित हैं और कुछ लेख लघुकृतियों के संबंध में भी हैं। इसमें सर्वप्रथम लेख 'मुद्राराक्षस की सामाजिक पीठिका में जैन तत्त्व' का लेखन सन् 1948 में किया था। ये लेख कई विश्वविद्यालयों आदि में तथा विकास त्रैमासिक एवं तित्थयर, जहाजमंदिर, कुशलनिर्देश, जैन सत्य प्रकाश, वैचारिकी और अनुसंधान आदि मासिकों में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। सन् 1977 से 2001 तक मेरा लेखन प्रायः बन्द-सा रहा है। प्राकृत भारती अकादमी की व्यवस्था में संलग्न रहने के कारण लेखन कार्य स्थगित सा रहा है। इस लेख संग्रह को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का श्रेय व्याकरणाचार्य प.पू. आचार्य श्री विजयसोमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज को है जो कि शासनसम्राट् प.पू. आचार्यप्रवर श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न वात्सल्यवारिधि प.पू. आचार्य श्री विजयविज्ञानसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर प्राकृतविशारद प.पू.आ. श्री विजयकस्तूरसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर जिनशासनशणगार प.पू. आचार्य श्री विजयचन्द्रोदयसूरीश्वरजी महाराज के गुरु लघुबंधु, सूरिमन्त्रसमाराधक प.पू. आचार्य श्री विजयअशोकचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य हैं, उनका मैं अत्यन्त आभारी हूँ। अंत में आशा करता हूँ कि यह लेखसंग्रह साहित्य प्रेमियों के लिए अध्ययन, संशोधन, संपादन आदि का मार्ग प्रशस्त करेगा और अनुसंधित्सुओं के लिए अनुसंधान की दृष्टि से यह लेखसंग्रह उपयुक्त होगा। - महोपाध्याय विनयसागर
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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