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________________ महोपाध्याय समयसुन्दर १७वीं शताब्दी के संस्कृत महाकवियों में महोपाध्याय पदधारक, समय = सिद्धान्त (स्वदर्शन और परदर्शन) को सुंदर = मंजुल/मनोहर रूप में जन साधारण एवं विद्वत समाज के सन्मुख रखने वाले, समय = काल एवं क्षेत्रोचित साहित्य का सर्जन कर समय का सुंदर = प्रशस्ततम उपयोग करने वाले अन्वर्थक नाम धारक महामना महर्षि समयसुन्दर गणि हैं। इनकी योग्यता एवं बहुमुखी प्रतिभा के संबंध में विशेष न कहकर यह कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी कि कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य के पश्चात् सभी विषयों में मौलिक सर्जनकार एवं टीकाकार के रूप में विपुल साहित्य का निर्माता अन्य कोई शायद ही हुआ हो, साथ ही यह भी सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र के सदृश ही व्याकरण, साहित्य, अलंकार, न्याय, अनेकार्थ, कोष, छन्द, देशी भाषा एवं सिद्धान्तशास्त्रों के भी ये असाधारण विद्वान् थे। संगीतशास्त्र की दृष्टि से एक अद्भुत कलाविद् भी थे। कवि की बहुमुखी प्रतिभा और असाधारण योग्यता का मापदण्ड करने के पूर्व यह समुचित होगा कि इनके जीवन और व्यक्तित्व का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जाए:- . जन्म और दीक्षा:- राजस्थान प्रदेशान्तर्गत साँचोर (सत्यपुर) में इनका जन्म हुआ था। इनके माता-पिता पोरवाल जाति के थे। इनकी माता का नाम लीलादेवी और पिता का नाम रूपसी था। कवि का जन्म अज्ञात है किन्तु कवि रचित भावशतक को आधार मानकर मेरे मतानुसार इनका जन्म संवत् 1610 के लगभग माना जा सकता है। इन्होंने दीक्षा किस संवत् में ग्रहण की इसका भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हैं। किन्तु इन्हीं के शिष्य वादी हर्षनंदन अपने समयसुन्दर गीत में 'नवयौवन भर संयम संग्रह्यो जी' का उल्लेख किया है, अतः इनका दीक्षा ग्रहण काल 1628 से 30 के मध्य स्वीकार कर सकते हैं। इसकी दीक्षा अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने अपने कर-कमलों से प्रदान कर अपने प्रथम शिष्य सकलचन्द्रगणि का शिष्य बनाया था। और मुनि पद प्रदान कर समयसुन्दर नाम प्रदान किया था। इनकी शिक्षा-दीक्षा युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के ही शिष्य वाचक महिमराज (जिनसिंहसूरि) और समयराजोपाध्याय के निर्देशन में ही हुई थी। अर्थात् ये दोनों ही समयसुन्दरजी के विद्या गुरु थे। गणिपदः- भाव शतक की रचना प्रशस्ति में कवि ने स्वयं के नाम के साथ गणि पद का उल्लेख किया है। भावशतक की रचना संवत् 1641 में हुई। अतः यही अधिक संभावना है कि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने संवत् 1640, माघ सुदि पाँचम को जैसलमेर में वाचक महीमराज के साथ ही इनको भी गणि पद प्रदान किया होगा। वाचनाचार्य पदः- सम्राट अकबर के निमंत्रण पर आचार्य जिनचन्द्रसूरि संवत् 1648, फाल्गुन सुदि 12 के दिन लाहौर में सम्राट से मिले थे। उस समय जिनचन्द्रसूरि के साथ महोपाध्याय जयंसोम, वाचनाचार्य कनकसोम, वाचक रत्ननिधानगणि, समयसुन्दर और गुणविनय आदि भी आचार्यश्री के साथ 90 * लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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