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________________ थे। संवत् 1649 में सम्राट अकबर ने काश्मीर विजय के लिए प्रस्थान किया था, उस समय वाचक महीमराज आदि भी साथ थे। काश्मीर विजय से लौटने के पश्चात् सम्राट अकबर ने वाचक महिमराज को आचार्य बनाने के लिए आग्रह किया। उस समय आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने संवत् 1649, फाल्गुन सुदि दूज को लाहौर में विशाल महोत्सव के साथ वाचक महिमराज को आचार्य और समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। इस पदारोहण महोत्सव पर महामंत्री कर्मचन्द बच्छावत ने एक करोड़ रुपये व्यय किए। उपाध्याय पदः- कवि की 1671 के पश्चात् के रचनाओं में उपाध्याय पद का उल्लेख मिलता है। अतः यह निश्चित है कि जिनसिंहसूरि ने लवेरा ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया था। महोपाध्याय पदः- परवर्ती कई कवियों ने आपको 'महोपाध्याय' पद से सूचित किया है, जो वस्तुतः आपको परम्परा अनुसार प्राप्त हुआ था। सं. 1680 के पश्चात् गच्छ में आप ही वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और पर्यायवृद्ध थे। साथ खरतरगच्छ की यह परंपरा रही है कि उपाध्याय पद में जो सबसे बड़ा होता है वही महोपाध्याय कहलाता है। प्रवास:- कवि के स्वरचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, तीर्थमालायें और तीर्थस्तव साहित्य को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कवि का प्रवास उत्तर भारत के क्षेत्रों में बहुत लंबा रहा है। सिन्ध, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात के प्रदेशों में विवरण अत्यधिक रहा है। उपदेश:- इनके उपदेशों से प्रभावित होकर सिद्धपुर (सिंध) के कार्यवाहक (अधिकारी) मखनूम मुहम्मद शेख काजी को अपनी वाणी से प्रभावित कर समय सिन्ध प्रान्त में गौमाता का, पंचनदी के जलचर जीव एवं अन्य सामान्य जीवों की रक्षा के लिये समय की उद्घोषणा करवाता है। इसी प्रकार जहाँ जैसलमेर में मीना-समाज साँडों का वध किया करता था, वहीं ही जैसलमेर के अधिपति रावल भीमजी को बोध देकर इस हिंसाकृत्य को बन्द करवाया था और मंडोवर (मंडोर, जोधपुर स्टेट) तथा मेडता के अधिपतियों को ज्ञान-दीक्षा देकर शासन-भक्त बनाया था। . स्वर्गवासः- समयसुन्दरजी ने वृद्धावस्था में शारीरिक क्षीणता के कारण संवत् 1696 से अहमदाबाद में ही स्थिरता कर ली थी। संवत् 1702, चैत्र सुदि तेरह महावीर जयन्ती के दिन ही इनका स्वर्गवास हुआ। अहमदाबाद में इनका स्मारक अवश्य बना होगा, किंतु आज वह प्राप्त नहीं है। इनकी चरण पादुकाएँ नाल दादाबाड़ी में और जैसलमेर में प्राप्त हैं। शिष्य परम्परा:- एक प्राचीन पत्र के अनुसार ज्ञात होता है कि कवि के 42 शिष्य थे, जिनमें वादी हर्षनंदन, मेघविजय, मेघकीर्ति, महिमासमुद्र आदि मुख्य हैं / इनकी परम्परा में अंतिम यति चुन्नीलालजी लगभग 30 वर्ष पहले मौजूद थे। साहित्य सर्जन:- कविवर सर्वतोमुखी प्रतिभा के धारक एक उद्भट विद्वान् थे। केवल वे साहित्य की चर्चा करने वाले वाचा के विद्वान ही नहीं थे, अपितु वे थे प्रकाण्ड-पाण्डित्य के साथ लेखनी के धनी भी। कवि ने व्याकरण, अनेकार्थी साहित्य, साहित्य, लक्षण, छन्द, ज्योतिष, पादपूर्ति साहित्य, चार्चिक, सैद्धान्तिक और भाषात्मक गेय साहित्य की जो मौलिक रचनायें और टीकायें ग्रथित कर सरस्वती के भण्डार को समृद्ध कर जो भारतीय वाङ्मय की सेवा की है, वह वस्तुतः अनुपमेय है और वर्तमान साधु-समाज के लिये आदर्शभूत अनुकरणीय भी है। कवि की मुख्य-मुख्य कृतियाँ निम्न है:लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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