________________ 1. मौलिक संस्कृत रचनायें 1. अष्टलक्षी (अर्थ रत्नावली) 2. भावशतक 3. मंगलवाद 4. समाचारी शतक 5. विशेष शतक 6. विशेष संग्रह 7. विसंवाद शतक 8. कथा कोष 9. सारस्वत रहस्य 10. स्तोत्र संग्रह आदि 22 कृतियाँ 2. संस्कृत टीकायें 1. रघुवंश टीका 2. वृत्तरत्नाकर टीका 3. वाग्भटालंकार टीका 4. सारस्वत वृत्ति 5. माघकाव्य टीका 6. मेघदूत प्रथम श्लोक टीका . 7. लिंगानुशासन चूर्णि 8. कल्पलता टीका 9. दशवैकालिकसूत्र टीका आदि 24 ग्रंथ 3. पादपूर्ति साहित्य 1. जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य 2. ऋषभ भक्तामर स्तोत्र (रघुवंश तृतीय सर्ग पादपूर्ति) (भक्तामर पादपूर्ति) इनकी मौलिक कृतियों में अष्टलक्षी ग्रन्थ अनुपमेय ग्रन्थ है और समग्र भारतीय साहित्य में इस कोटि का कोई दूसरा ग्रन्थ प्राप्त नहीं है। वैसे संस्कृत साहित्य में वीसंधान काव्य, सप्तसंधान काव्य, चतुर्विंशति संधान काव्य प्राप्त है और एक श्लोक के सौ अर्थ वाली शतार्थी काव्य भी प्राप्त हैं। किंतु एकएक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ करने वाली कोई कृति प्राप्त नहीं है, प्राप्त है तो केवल यही कृति / इस कृति में 'राजानो ददते सौख्यम्' इस आठ अक्षरों पर प्रत्येक अक्षर के कवि ने व्याकरण कोष और अनेकार्थी कोषों के आधार पर एक-एक लाख अर्थ किए हैं। इसलिए यह ग्रंथ अष्टलक्षी के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी रचना के संबंध में उल्लेख प्राप्त होता है कि सम्राट अकबर की सभा में चर्चा के समय जैनाचार्य द्वारा जब यह कहा गया कि 'एगस्स सुत्तस्स अणंतो अत्थो' अर्थात् एक-एक सूत्र के अनन्त अर्थ होते हैं। सभा ने प्रमाणित करने के लिये कहा। उस कवि समयसुन्दर ने इसको प्रमाणित करने के लिये समय चाहा। विक्रम संवत् 1649 श्रावण शुक्ला तेरस की सायंकाल जिस समय अकबर ने काश्मीर विजय के लिये श्रीराज श्रीरामदासजी की वाटिका में प्रथम प्रवास किया था, वही समस्त राजाओं, सामंतों और विद्वानों की उपस्थिति में कवि ने अपना नूतन ग्रन्थ सुनाकर सबके सन्मुख सिद्ध कर दिखाया कि मेरे जैसा एक अदना व्यक्ति भी एक अक्षर के एक लाख अर्थ कर सकता है तो सर्वज्ञ की वाणी के अनन्त अर्थ कैसे नहीं होंगे? यह ग्रन्थ सुनकर सब चमत्कृत हुये और विद्वानों के सन्मुख ही सम्राट ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक ठहराया। कवि के रूप में प्रतिष्ठापित करने के लिये इनका जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य ही पर्याप्त है। इस काव्य में रघुवंश काव्य के तीसरे सर्ग की पादपूर्ति के रूप में जिनसिंहसूरि के आचार्य पदोत्सव का वर्णन किया गया है। यह पदोत्सव सम्राट अकबर के आग्रह पर ही युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के आदेश पर महामंत्री कर्मचंद बच्छावत ने संवत् 1649, फाल्गुन सुदि द्वितीया को लाहौर में आयोजित किया था। उदाहरणस्वरूप दो पद्य देखिए: लेख संग्रह 92