SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीक्षा ग्रहण के पश्चात् नाम परिवर्तन में नन्दी का प्रयोग लगभग 8 शताब्दियों से चला आ रहा है। वर्तमान संविग्न परम्परा के साधुजनों में यह नन्दी परम्परा लुप्त होकर एक नन्दी पर आश्रित हो गई है। जैसे खरतरगच्छ में गणनायक सुखसागरजी के समुदाय में सागर नन्दी का ही प्रयोग होता आ रहा है। पूज्य श्री मोहनलालजी महाराज के समुदाय में मुनि नन्दी का प्रचलन है और श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी म. के समुदाय में सागर नन्दी का प्रयोग था। था इसलिए कि वह परम्परा अब निःशेष हो गई है। हालांकि श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज ने प्रथम नन्दी चन्द्र की स्थापित कर तिलोकचन्द नामकरण किया था, किन्तु समुदाय की अभिवृद्धि न देखकर उन्होंने सागर नन्दी का ही आश्रय लिया। खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची में (जो कि बीकानेर बड़ी गद्दी, आचार्य शाखा और जिनमहेन्द्रसूरि मण्डोवरी शाखा का) इन नामों का उल्लेख न होने से स्वयं संदेहग्रस्त था कि यह परम्परा जिनराजसूरि परम्परा, जिनसागरसूरि परम्परा और जिनमहेन्द्रसूरि की परम्परा में नहीं थे किन्तु किस परम्परा के अनुयायी थे यह मेरे लिए प्रश्न था। किन्तु पंचकल्याणक पूजा में कवि ने स्वयं यह उल्लेख किया है: श्रीअक्षयजिनचन्द्रं पंचकल्याणयुक्तं सुनिधिउदयवृद्धि भावचारित्रनन्दी। भवजलधितरण्डं भक्तिभारै स्तुवंति अविचलनिधिधामं ध्याययन्प्राप्नुवन्ति // 1 // गणाधीशौदार्यो गुण मणिगणानां जलनिधिः गभीरोभूच्छीमान्प्रवरजिनराजाक्षगणभृत् सुरिन्द्रस्तत्पट्टे घुमणिजिनरंगः सुरतरुः / बृहद्गच्छाधीशो खरतरगणैकाम्बुजपति // 2 // क्रमादायातं श्रीजिनअखयसूरीन्द्रगणभृ- .. दभून्नृणां तापं तदुपशमनं पूर्णशशिभृत् गभस्तिस्तत्पट्टे भविकजसुबोधकरसिको भुवौ विख्यातंश्रीप्रवरजिनचन्द्रो विजयते // 3 // अर्थात् जिनराजसूरि के पश्चात् शाखाभेद होकर जिनरङ्गसूरि शाखा का उद्भव हुआ। जिनरङ्गसूरि परम्परा में श्रीजिनाक्षयसूरि के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य में यह पूजा रची गई। चारित्रनन्दी की परम्परा जिनरङ्गसूरि शाखा की आदेशानुयायिनी रही। इस शाखा की दफ्तर बही प्राप्त न होने से इस परम्परा के उपाध्यायों का दीक्षा काल का निर्णय नहीं कर सका। १९वीं शताब्दी के अन्त में और २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में काशी में चारित्रनन्दी और जिनमहेन्द्रसूरि अनुयायी नेमिचन्द्राचार्य और बालचन्द्रचार्य जैन विद्वानों में विख्यात् थे अर्थात् इनका बोलबाला था। इसी समय के विजयगच्छीय उपाध्याय हेमचन्द्रजी का कलकत्ता में प्रौढ़ विद्वानों में स्थान था। चारित्रनन्दी के शिष्य चिदानन्द प्रथम थे। जिनका प्रसिद्ध नाम कपूरचन्द था। वे क्रियोद्धार पर संविग्न पक्षीय साधु बन गए थे और उनका विचरण क्षेत्र अधिकांशत: गुजरात ही रहा। चिदानन्दजी प्रथम अच्छे विद्वान् थे अध्यात्म ज्ञानी थे और उन्हीं पर उनकी रचनाएं होती थी। उनकी लघु रचनाओं का संग्रह श्री चिदानन्द (कर्पूरचन्द्रजी) कृत पद संग्रह (सर्व संग्रह) भाग 1 एवं 2 जो कि श्री बुद्धि-वृद्धि 192 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy