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________________ ततपंकज मधुकर सुखपीन चित्रकुमर लबधी गुणलीन। भ० 12 ततपद निधिउदयज भान जिनआज्ञाप्रतिपालक जांन। भ० 13 भावनन्दी गुरुपदअनुरक्त भ्रातृ चारित्रनंद कीधी जिनभक्ति। भ० 14 इसमें महिमतिलक के बाद की ही गुरु परम्परा दी है और भावनन्दी को अपना गुरुभ्राता बतलाया की पंचज्ञान पूजा रचना प्रशस्ति में लिखा है: खरतरपति जिनसिंहपटधार श्री जिनराजससूरिंद सुखकार। भ० 6 तसु पदपंकज मधुप सुशिष्य पाठक रामविजय गुणमुख्य। भ० 7 .. तसु शिष्य वरवाचकश्री पद्म-हरख हरखधर शिवसुखसद्म। भ० 8 तसु वैनेय पाठकपदधार सुखनंदन गुणमणिभंडार। भ० 9 तसुपद कनकसागर अभिधान पाठकपदधारक सुविहान / भ० 10 तसुपद सरकजहंससमान पाठक महिमतिलक गुणखान। भ० 11 * कुमरुत्तर तसु उभय सुशिष्य चित्रलबधि पंडितजनमुख्य। भ० 12 तसुशिष्य निधिउदयगणि जाण गुरुपदकजमकरंद समान / भ० 13 तासुशिष्य वर चारित्रनन्द पणनाणस्तुति रचि आनंद। भ० 14 इसमें अपनी पम्परा जिनसिंहसूरि से ही प्रारम्भ की है। सुखनन्दन के बाद कनकसागर का नाम दिया है और चित्रकुमार तथा लब्धिकुमार को गुरु भ्राता लिखा है। इक्कीस प्रकारी पूजा की रचना प्रशस्ति में लिखा है:गच्छेशसत्खरतराह्वयंगच्छसिद्धः भव्याब्जकाननमलंकृतभानुरूपः / आचारपञ्चशुभपालनसावधानो सूरीन्द्रराजजिनराजमभूत्प्रसिद्धः॥ 2 // * वादीन्द्रवृन्दघटमुद्गरतुल्यभावं तच्छिष्यरामविजयो वरवाचकोऽभूत् / सिद्धान्ततत्त्वसद्भावितधीप्रचण्डस्तच्छिष्यवाचकवरोऽभूत्पद्महर्षः // 3 // जैनेन्द्रशासनप्रकाशकचन्द्रतुल्यस्तच्छिष्यवाचकवरो सुखनन्दनोभूत् / श्रीपाठको कनकसागर तस्य शिष्यो ऽभूद्भव्यपंकजसमूहविबोधभानुः॥ 4 // सद्वाचकोग्रतिलको महिमाभिधानोऽभूद्दीक्षितौ प्रवचनाष्टसुमातृचारिः। जैनेन्द्रशासनविभासकचन्द्रतुल्यौ शिष्यावभूत्सुकुमरुत्तरलब्धिचित्रौ // 5 // शौण्डीर्यधैर्यगुणरत्नकरण्डकेयस्तच्छिष्यनिद्धिउदयाह्वयभू जयंतु। चारित्रनन्दिविनयेन विनिर्मितेयं अर्हत्सुनेमिदिवसेषु धृतिग्रहेषुः॥ 6 // ___ इस प्रशस्ति में जिनराजसूरि से अपनी परम्परा प्रारम्भ की है। इसमें भी सुखनन्दन के बाद कनकसागर का नाम दिया गया है। चित्रकुमार और लब्धिकुमार को गुरुभ्रता लिखता है। . खरतरगच्छ की परम्परा में प्रत्येक पट्टधर आचार्य दीक्षा देते समय 84 नन्दियों में से किसी भी नन्दी (दीक्षान्त पद) का प्रयोग करता था। एक दीक्षान्त नन्दी में 20 से 40 दीक्षाएं देने के पश्चात् पुनः नवीन नन्दी का प्रयोग करता था। इस प्रकार एक-एक पट्टधर आचार्य के समय में 4 से लेकर 44 तक नन्दियों का उल्लेख मिलता है। लेख संग्रह 191
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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