________________ तपागच्छीय प्रसिद्ध विद्वान श्री देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्री धर्मघोषसूरि (तपागच्छ पट्टावली के अनुसार आचार्य पद वि० सं० 1303 या 1304 में प्राप्त हुआ था और सं० 1356 में इनका स्वर्गवास हुआ था। गुर्जराधीश इनका मित्र था और ये बड़े चमत्कारी प्रभावशाली आचार्य थे) विहार करते हुए बीजापुर आये और वहाँ चातुर्मास किया। आचार्य के उपदेश से प्रभावित होकर पेथड़ ने परिग्रह प्रमाण का व्रत ग्रहण किया। 'मालव देश में तेरा भाग्योदय है' ऐसा आचार्य से संकेत प्राप्त कर, पेथड़ माण्डवगढ़ आकर रहने लगा। माण्डवगढ़ में परमारवंशीय जयसिंह भूपति का राज्य था। माण्डवगढ़ में नमक और घी का व्यापार करते हुए एक घी बेचने वाली महिला से पेथड़ को 'चित्रावेली' प्राप्त हुई। चित्रावेली के प्रभाव से पेथड़ कोट्याधीश बना। राजा के साथमैत्री हुई, राजा से छत्र-चामर आदि राज्याधिकार प्राप्त कर सम्मानित हुआ। पेथड़ का पुत्र झांझण था। झांझण का विवाह दिल्ली निवासी भीम सेठ की पुत्री सौभाग्यदेवी से हुआ। शाकंभरी नरेश चौहान गोगादे ने पेथड़ को बुलाकर उससे चित्रावेली माँगी और पेथड़ ने उन्हें प्रदान कर दी। पेथड़ ने जीरावाला पार्श्वनाथ और आबूतीर्थ की यात्रा की। एक समय आचार्य धर्मघोषसूरि के मंडप दुर्ग पधारने पर पेथड़ ने 72,000 रु. का व्यय कर बड़े महोत्सव के साथ नगर प्रवेश करवाया। उनके उपदेशों से उद्बोध प्राप्त कर, पेथड़शाह ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर 84 जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया। मंडपदुर्ग (मांडवगढ़) में 18 लाख द्रव्य खर्च कर 72 जिनालय वाला शत्रुजयावतार ऋषभदेव का मंदिर बनवाया। शत्रुजय तीर्थ पर शान्तिनाथ का विशाल जिनालय बनवाया। ओंकारेश्वर में श्रेष्ठतम तोरण युक्त मन्दिर बनवाया। ओंकार नगर में सत्रागार (सदाव्रत स्थान) खोला। शत्रुजय और गिरनार तीर्थ की संघ के साथ यात्रायें की। गिरनार तीर्थ की यात्रा के समय अलाउद्दीन खिलजी द्वारा मान्य दिल्ली निवासी संघपति पूर्ण अग्रवाल, जो कि दिगम्बर जैन था, के साथ संघर्ष होने पर भी संघपति की इन्द्रमाल पहले पेथड़ ने ही पहनी। . पेथड़ ने विपुल द्रव्य खर्च कर, भृगुकच्छ (भरुच), देवगिरि, माण्डवगढ़, आबू आदि सात स्थानों पर जैन ज्ञान भण्डार स्थापित किये और उन भण्डारों में सहस्रों प्राचीन और अर्वाचीन (नवीन लिखवाकर) ग्रन्थ उन भंडारों में स्थापित किये। आचार्य धर्मघोषसूरि से ग्यारह अंगों का श्रवण किया। भगवती सूत्र का श्रवण करते हुए जहाँजहाँ गौतम शब्द आया वहाँ-वहाँ एक-एक स्वर्ग मुद्रा पढ़ाई। इस प्रकार 36,000 स्वर्ण मोहरों से भगवती सूत्र की पूजना की। पेथड़ के पुत्र झांझण ने आचार्य धर्मघोषसूरि के सान्निध्य में, मांडवगढ़ से वि० सं० 1340 में विशाल यात्री संघ निकाला जिसका विशद वर्णन अनेक कृतियों में प्राप्त है। इस संघ का संघपति झांझण ही था। इसमें पेथड़ का उल्लेख न होने से यह संभव है कि 1340 के पूर्व ही पेथड़ का स्वर्गवास हो गया था। सुकृतसागर चतुर्थतरंग में पेथड़ निर्माणित 84 जिनालयों का उल्लेख करते हुए स्थानों के नाम भी प्रदान किये हैं: श्रुत्वा गुरुगिरं पृथ्वीधरोऽथ पृथुपुण्यधीः / चैत्यं न्यस्ताऽऽद्यतीर्थेशं द्वासप्तति जिनालयम्॥ 40 // 324 लेख संग्रह