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________________ श्री हीरविजयसूरि सज्झाय 'हीरला' के नाम से समाज प्रसिद्ध जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि के नाम से कौन अपरिचित होगा? तपागच्छ पट्टावली के अनुसार ये ५८वें पट्टधर थे और श्री विजयदानसूरि के शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1583 प्रह्लादनपुर में हुआ था। पिता का नाम कुंरा और माता का नाम नाथी था। संवत् 1596 पत्तननगर में दीक्षा, 1607 नारदपुरी (नाडोल) में पण्डित पद, 1608 में नारदपुरी में वाचक पद, 1610 सिरोही में आचार्य पद और 1622 में पट्टधर प्राप्त हुआ था। संवत् 1652 में इनका स्वर्गवास हुआ था। सम्राट अकबर प्रतिबोधक आचार्य के रूप में इनका नाम विश्व विख्यात है। जगद्गुरु पद सम्राट अकबर ने ही प्रदान किया था। इनका विस्तृत जीवन चरित्र जानने के लिए पद्मसागर रचित जगद्गुरु काव्य, शान्तिचन्द्रोपाध्याय रचित कृपारस कोष, श्री देवविमल रचित हीरसौभाग्य काव्य, कविवर ऋषभदास रचित हीरविजयसूरि रास और श्री विद्याविजयजी रचित सूरीश्वर अने सम्राट द्रष्टव्य है। इन दोनों सज्झायों का स्फुट पत्र प्राप्त है, जिसकी माप 2641143 से.मी. है, पत्र 1, कुल पंक्ति 13, प्रति अक्षर 52 हैं। लेखन १७वीं शताब्दी है। भास की भाषा गुर्जर प्रधान है। ये दोनों सज्झायें श्री विजयदानसूरि स्वाध्याय के साथ ही लिखी हुई हैं। - प्रथम सज्झाय का कर्ता अज्ञात है। पाँच गाथाओं की इस सज्झाय में कर्ता ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है। केवल हीरविजयसूरि के गुणों का वर्णन है। प्रारम्भ में शान्तिनाथ सरस्वती देवी को प्रणाम कर श्री हीरविजयसूरि की स्तुति करूँगा, यह कवि प्रतिज्ञा करता है। श्री आनन्दविमलसूरि के पट्टधर और श्री विजयदानसूरि के ये शिष्य थे। समता रस के भण्डार थे। भविक जीवों के तारणहार थे। नर-नारि वृन्द उनके चरणों में झुकता था। देदीप्यमान देहकान्ति थी। मधुर स्वर में व्याख्यान देते थे। अनेक मनुष्यों, देवों * और देवेन्द्रों के प्रतिबोधक थे। चौदह विद्या के निधान थे। ऐसे श्री विजयदानसूरि के शिष्य करोड़ों वर्षों तक जैन शासन का उद्योत करें। इस कृति में सम्राट अकबर का प्रसङ्ग नहीं है। अतः यह रचना संवत् 1639 के पूर्व की। दूसरे सज्झाय की रचनाकार कौन हैं? अस्पष्ट है। गाथा 9 के अन्त में लिखा है:- 'श्री विशालसुन्दर सीस पयम्पइ' इसके दो अर्थ हो सकते हैं। श्री हीरविजयसूरि के शिष्य विशाल सुन्दर ने इसकी रचना की है। अथवा विशालसुन्दर के शिष्य ने इसकी रचना की है। यह कृति भी सम्राट अकबर के सम्पर्क के पूर्व ही रचना है। - इसमें 10 गाथाएं हैं। प्रत्येक में आचार्य के गुणगों का वर्णन हैं / गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है:- श्री हीरविजयसूरि जैन शासन के सूर्य हैं, गुण के निधान हैं, तपागच्छ समुद्र के चन्द्रमा हैं / विनयपूर्वक मैं उनके चरणों को नमस्कार करता हूँ। देवेन्द्र के समान ये गच्छपति हैं। अपने विद्यागुण से इन्द्र जेता हैं। जग में जयवन्त हैं, महिमानिधान हैं, निर्मल नाम को धारण करने वाले हैं। शास्त्र समूह के जानकार हैं। - लेख संग्रह 235 16
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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