________________ देवः देवः - वद त्वमेव। पिशाचीः - छहतलसनपलमत्थं यो विंतति सत्थय निफल निऊन ! अत्थप्पेलक्कलुई सच्चेमक्के पतंतेइ // 24 // सच्चनलक्खनतक्खो समक्कफासालतो मतिमं। पहुलोकानंतकलो नत तुआ नंतलामोसो // 25 // विदूषकः ही ही! इमाए मागहीपिशाईभगवदीए गिलविलरूवं वाणी महुरत्तणं अस्सुदपुव्वं मये सुणिदं। देवः तर्हि अयमपि सत्ययुगानुवर्येवाऽस्ति / पिशाची: अह किम्। उर्वशी: ( इतोऽवलोक्य) हेजे, अवझसभासाविसारए! तमवि किं वुत्तकामा चिट्ठसि? / चेटी: उर्वशी: सामी, एसावि भट्ठिणो आलावपसायं ईहई। ब्रूहिचोटी: रजपहाणमणीसि पुण जहां चउब्भुय धन्नु / मंतकरण जेस रूवु जहां धणरक्खणउ किसन्नु // 26 // जहिं विक्कमणयरहिं रहइं, सुहु जण देवह जेम्वु। धम्मह केरी वट्टडी, हल्लइ अप्पण पेम्वु॥ 27 // घरि घरि देवा पुज्जियई, धरि घरि दिज्जै(ज्जइ) दाणु। घरि घरि महिला सीलवइ, घरि घरि धम्मह ठाणु // 28 // झल्लरि तूर झणक्कडा, हुंति विहाणह संझि / दिण दिण हल्लोहलि रहइ, देवल देवल मंझि // 29 // विक्कमणयरइ भत्तिडी, सग्गह मज्झि पलोइ। सग्गह केरी भत्तिडी, विक्कमणयरहिं जोइ // 30 // इति उपरमति। अथ गुरु: - समसंस्कृतेन, इदमेव नगरमरिबलतापविहीनं विसारिगुणपीनम्। नहि नहि पापाधीनं, भूयो भूयो वदामीनम् // 31 // अथ देवः - (प्रसद्य) आलब्धमत्रैव कृतयुगसदमिति समाधाय देवनायको देवविधेयान् साधयति। इति रञ्जिता देवपर्षत्। राजंश्चिरं जीव विधेहि राज्यं, चिरं महाराजकुमार! जीव। आणन्दरामाऽन्वहमेव नन्द, श्रीधर्मलाभं सततं वहस्व // 32 // इति श्री नाटिकानुकारिषड्भाषामयं पत्रम्। लिखितं मार्गशीर्षासिततृतीयातिथौ 1787 वर्षे / आनन्दरामस्य कुतूहलार्थं, भाषाश्च षट् तं प्रतिबोधनार्थम्। सर्वज्ञपुत्रत्वकवित्वसंज्ञो-न्मादप्रमोदादहमप्यलेखम् // 1 // [अनुसंधान अंक-२७] 100 लेख संग्रह 179