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________________ श्री श्रीवल्लभोपाध्याय-प्रणीतम् श्री पार्श्वनाथस्तोत्रद्वयम् अनुसंधान, अंक 26 (दिसम्बर 2003) में वाचक श्रीवल्लभोपाध्याय रचित 'मातृका-श्लोकमाला' . के परिचय में श्रीवल्लभजी के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दिया है। इनकी कृतियों का विशेष परिचय 'अरजिनस्तवः' (सहस्रदल कमल गर्भित चित्रकाव्य) की भूमिका और 'हैमनाममालाशिलोञ्छ:' की भूमिका में मैंने दिया है। श्रीवल्लभोपाध्याय की साहित्य जगत को जो विशिष्ट देन रही है वह है कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित लिंगानुशासन और कोशग्रन्थों की टीका करते हुए 'इतिभाषायां, इतिलोके' शब्द से संस्कृत शब्दों का राजस्थानी भाषा में किस प्रकार प्रयोग होता है, यह दिखाते हुए लगभग 4000 राजस्थानी शब्दों का संकलन किया है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। अन्य टीकाकारों ने इस प्रकार की पद्धति को नहीं अपनाया है। इनके द्वारा संकलित लगभग 4000 शब्दों का 'राजस्थानी संस्कृत शब्दकोश' के नाम से मैं सम्पादन कर रहा हूँ जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा। श्री वल्लभोपाध्याय द्वारा स्वयं लिखित दो प्रतियाँ अभी तक अवलोकन में आई हैं - 1. वि०सं० 1655 में लिखित महाराणा कुम्भकर्णकृत चण्डिशतक टीका सहित की प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर क्रमांक 17376 पर प्राप्त है और दूसरी स्वलिखित प्रति श्रीसुन्दरगणिकृत चतुर्विंशतिजिनस्तुतयः, की प्रति मेरे संग्रह में है। कवि, टीकाकार और स्वतंत्र लेखन के रूप में इनके ग्रन्थ प्राप्त थे, किन्तु इनके द्वारा रचित कोई भी स्तोत्र मेरे अवलोकन में नहीं आया था। संयोग से अन्वेषण करते हुए दो दुर्लभ स्तोत्र प्राप्त हुए हैं वे यहाँ दिये जा रहे हैं। इसकी हस्तलिखित प्रति का परिचय इस प्रकार है - श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भंडार, पाटण, श्री तपागच्छ भंडार, डाबडा.२४८, क्र० नं० 12357, पत्र 1, साइज 25.5 x 12 सी०एम०, पंक्ति 16, अक्षर 46, लेखन अनुमानतः १७वीं शताब्दी, रचना के तत्कालीन समय की लिखित यह शुद्ध प्रति है। 1. पार्श्वजिनस्तोत्र - यमकालंकार गर्भित है। इसके पद्य 14 हैं। 1 से 13 तक पद्य सुन्दरीछन्द में है और अन्तिम १४वाँ पद्य इन्द्रवज्रा छन्द में है। कवि ने प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण में मध्ययमक का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए प्रथम पद्य देखिए - जिनवरेन्द्रवरेन्द्रकृतस्तुते, कुरु सुखानि सुखानिरनेनसः॥ भविजनस्य जनस्यदशर्मदः, प्रणतलोकतलोकभयापहः॥ 1 // 118 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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