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________________ दुर्जनशल्य हैं। महाराज दुर्जनशल्य बड़े प्रतापी और यशस्वी हैं जिन्होंने सेरखान को रण में पराजित किया और मालवपति के हस्तिबल को सिंह के समान नाश किया है। . इस आधार से राठौड़ों का वंश-वृक्ष इस प्रकार बनता है: जैत्रचन्द्र सलखा वीरमदेव चुण्डराज रिणमल जोधाजी दुर्जनशल्य इस प्रशस्ति से यह स्पष्ट नहीं होता कि ये जैत्रचन्द्र कौन हैं, संभव है कन्नौज के नृपति जयचन्द्र ही हों। कर्मध्वज कोई राजा हुए हैं या वीरता के कारण राठौड़ों का विशेषण रहा है? इस विषय पर अधिकारी विद्वान् ही प्रकाश डालें तो समुचित होगा। सलखाजी से जोधाजी तक की परम्परा इतिहास-सम्मत और प्रसिद्ध ही है किन्तु, इस परम्परा में जोधाजी का पुत्र दुर्जनशल्य अवश्य ही विचारणीय है। रायबहादुर श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का जोधपुर राज्य का इतिहास तथा महामहोपाध्याय विश्वेश्वरनाथ रेऊ का 'मारवाड़ का इतिहास' पुस्तकों में राव जोधाजी के पुत्रों में दुर्जनशल्य का कहीं भी नामोल्लेख नहीं है। श्री ओझाजी ने राव जोधाजी के 17 पुत्र -माने हैं : 1. नींबा, 2. सातल, 3. सूजा, 4. कर्मसी, 5. रामपाल, 6. वणवीर, 7. जसवन्त, 8. कूपा, . 9. चांदराव, 10. बीका, 11. बीदा, 12. जोगा, 13. भारमल, 14. दूदा, 15. वरसिंह, 16. सामन्तसिंह और 17. सिवराज। और, श्री रेऊजी ने राव जोधाजी के 20 पुत्रों के नाम इस प्रकार दिये हैं:- 1. नींबा, 2. जोगा, 3. सातल, 4. सूजा, 5. बीका, 6. बीदा, 7. वरसिंह, 8. दूदा, 9. करमसी, 10. वणवीर, 11. जसवन्त,, 12. कूपा, 13. चांदराव, 14. भारमल, 15. शिवराज, 16. रायपाल, 17. सांवतसी, 18. जगमाल, 19. लक्ष्मण और 20. रूपसिंह। जसवंत उद्योत में कवि दलपति ने राव जोधाजी के 14 पुत्रों का नामोल्लेख किया है:- 1. सूजा, 2. सातल, 3. बीका, 4. दूदा, 5. राइपाल, 6. करमसी, 7. वणवीर, 8. शिवराज, 9. नींबा, 10. बीदा, 11. सामंतसिंह, 12. भारमल, 13. नरसिंह और 14. जोगा। इन नामावलियों में कहीं भी दुर्जनशल्य का नाम नहीं है और समस्त इतिहासकार राव जोधाजी के पश्चात् गद्दीपति महाराजा सातल को ही स्वीकार करते हैं जबकि प्रशस्तिकार 'तत्तनयो नृपनेता दुर्जनशल्यो नृपो जयति' का उल्लेख करता है। ___अतः यही संभावना होती है कि प्रशस्तिकार ने 'दुर्जनशल्य' शुद्ध, परिमार्जित एवं गुणयुक्त संस्कृत नाम शब्द का प्रयोग किया है, व्यावहारिक बोलचाल का नामोल्लेख नहीं किया है। इसलिये यह राव दूदाजी का ही शुद्ध नाम स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि.... लेख संग्रह 311
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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