________________ श्री पद्मानन्दसूरि रचित श्रावक-विधि रास - इस रचना के अनुसार 'श्रावक विधि रास' के प्रणेता श्री गुणाकरसूरि शिष्य पद्मानन्दसूरि हैं। इसकी रचना उन्होंने विक्रम संवत् 1371 में की है। इस तथ्य के अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में इस कृति में कुछ भी प्राप्त नहीं है और जिनरत्नकोष, जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास और जैन गुर्जर कविओ में कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। अतएव यह निर्णय कर पाना असम्भव है कि ये कौनसे गच्छ के थे और इनकी परम्परा क्या थी? शब्दावली को देखते हुए इस रास की भाषा पूर्णतः अपभ्रंश है प्रत्येक शब्द और क्रियापद अपभ्रंश से प्रभावित है। पद्य 8, 21, 36, 43 में प्रथम भाषा, द्वितीय भाषा, तृतीय भाषा, चतुर्थ भाषा का उल्लेख है। भाषा शब्द अपभ्रंश भाषा का द्योतक है और पद्य के अन्त में घात शब्द दिया है जो वस्तुतः 'घत्ता' है। अपभ्रंश प्रणाली में घत्ता ही लिखा जाता है। वास्तव यह घत्ता वस्तु छन्द का ही भेद है। . - इस रास में श्रावक के बारह व्रतों का निरूपण है। प्रारम्भ में श्रावक चार घड़ी रात रहने पर उठकर नवकार मन्त्र गिनता है, अपनी शैय्या छोड़ता है और सीधा घर अथवा पोशाल में जाता है जहाँ सामायिक, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करता है। प्रत्याख्यान के साथ श्रावक के चौदह नियमों का चिन्तवन करता है। उसके पश्चात् साफ धोती पहनकर घर अथवा देवालय में जाता है और सुगन्धित वस्तुओं से मन्दिर को मघमघायमान करता है। अक्षत, फूल, दीपक, नैवेद्य चढ़ाता है अर्थात् अष्टप्रकारी पूजा करता है। भाव स्तवना करके दशविध श्रमण धर्म पालक सद्गुरु के पास जाता है। गुरु वन्दन . करता है। धर्मोपदेश सुनता है, जीवदया का पालन करता है। झूठ नहीं बोलता है। कलंक नहीं लगाता है। दूसरे के धन का हरण नहीं करता है। अपनी पत्नी से संतोष धारण करता है और अन्य नारियों को माँ-बहिन समझता है और परिग्रह परिमाण का धारण करता है। दान, शील, तप, भावना की देशना सुनता है और गुरुवन्दन कर घर आता है। वस्त्र को उतारकर अपने व्यापार वाणिज्य में लगता व्यापार करते हए पन्द्रह कर्मादानों का निषेध करता है। प्रत्येक कर्मादान का विस्तत वर्णन है। (पद्य 1 से 34) व्यापार में जो लाभ होता है उसके चार हिस्से करने चाहिए। पहला हिस्सा सुरक्षित रखे, द्वितीय हिस्सा व्यापार में लगाये, तृतीय हिस्सा धर्म कार्य में लगाये और चौथा हिस्सा द्विपद, चतुष्पद के पोषण में लगाया जाए। (पद्य 35) द्वितीय व्रत के अतिचारों का उल्लेख करके देवद्रव्य, गुरुद्रव्य का भक्षण न करे। मुनिराजों को शुद्ध आहार प्रदान करे। इसके पश्चात् द्वितीय बार भगवान की पूजा करे। दीन-दान इत्यादि की लेख संग्रह 341