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________________ संभाल करे। मुनिराजों को अपने हाथ से गोचरी प्रदान करे। पौषधव्रत धारण करे। प्रत्याख्यान करे। सचित्त का त्याग करे। पिछले प्रहर में पुनः पौषधशाला जावे और वहाँ पढ़े, गुणे, विचार करे, श्रवण / करे। सन्ध्याकालीन तृतीय पूजा करे। दिन के आठवें भाग में भोजन करे। दो घड़ी शेष रहते हुए दैवसिक प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करे और रात्रि के द्वितीय प्रहर के प्रारम्भ में नवकार गिनकर चतुर्विध शरण स्वीकार करता हुआ शयन करे। (पद्य 36 से 42) निद्राधीन होने के पूर्व यह विचार करे कि शत्रुजय और गिरनार तीर्थ पर तीर्थ की यात्रा के लिए जाऊँगा, वहाँ पूजा करूँगा, करवाऊँगा। साधर्मिक बन्धुओं का पोषण करूँगा। पुस्तक लिखवाऊँगा और अपना व्यापार पूर्ण कर अन्त में संयम ग्रहण करूँगा। वृद्ध और ग्लानों की सेवा करूँगा। (पद्य 43 से 44) ___जल बिना छाने हुए ग्रहण नहीं करूँगा। मीठा जल खारे जल में नहीं मिलाऊँगा। दूध, दही इत्यादि ढंककर रखूगा। रांधना, पीसना और दलना इत्यादि कार्यों में शोधपूर्वक कार्य करूँगा। चूल्हा, ईंधन इत्यादि का यतनापूर्वक उपयोग करूँगा। अष्टमी चौदस का पालन करूँगा। जीवदया का पालन / ' करूँगा। जिनवचनों का पालन करूँगा। यतनापूर्वक जीवन का व्यवहार करूँगा। जो इस प्रकार करते हैं वे नर-नारी संसार से पार होते हैं। (पद्य 45 से 47) पाक्षिक, चातुर्मासिक और संवत्सरी के दिन क्षमायाचना करूँगा। सुगुरु के पास में आलोयणा ग्रहण करूँगा। अन्त में पर्यन्ताराधना स्वीकार करूँगा। कवि कहता है कि इस प्रकार श्रावक विधि के अनुसार दिनचर्या का जो पालन करता है वह आठ भवों में मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। यह रास पद्मानन्दसूरि ने संवत् 1371 में बनाया है। (पद्य 48 से 49). जो इस रास को पढ़ेगा, सुनेगा, चिन्तन करेगा उसका शासन देव सहयोग करेंगे। जब तक शशि, सूर्य, पृथ्वी, मेरु, नन्दनवन, विद्यमान हैं तब तक यह जिनशासन जय को प्राप्त हो। (पद्य 50) ___ इस प्रकार इस रास में श्रावक की दिनचर्या किस प्रकार की होनी चाहिए उसका सविस्तर वर्णन किया गया है। यह वर्णन केवल बारह व्रतों का वर्णन ही नहीं है अपितु उसकी विधि के अनुसार आचरण करने का विधान है। जैसलमेर भंडार के ग्रन्थ से यह प्रतिलिपि की गई है। यह कृति प्राचीनतम और रमणीय होने से यहाँ दी जा रही है: श्रावक-विधि रास पायपउम पणमेवि, चउवीसहं तित्थंकरहं / श्रावकविधि संखेवि, भणइ गुणाकरसूरि गुरो।। 1 / / जहिं जिणमंदिर सार, अंतु तपो धनु पावियई। श्रावग जिन सुविचारु, धणु तृणु जलु प्रचलो।। 2 / / न्यायवंत जहिं राउ, जण धण धन्नरउ माउलउ। सुधी परि ववसाउ, सूधइ थानकि तहिं वसउ।। 3 / / लेख संग्रह 342
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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