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________________ दृष्टि का परिचायक है। अरजिनस्तव को देखने से स्पष्ट है कि कवि चित्रकाव्यों का अद्भुत मर्मज्ञ था। इस कृति में कवि ने कमल के मध्य में 1000 रकार का प्रयोग करते हुए अपना विशिष्ट चित्रकाव्य कौशल दिखाया है। प्रस्तुत कृति का सारांश - ___ यह कृति दो परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद में 24 तीर्थंकरों का वर्णन किया गया है और द्वितीय परिच्छेद में त्रिदेव आदि देवताओं तथा पदार्थों का वर्णन किया गया है। अंत में छः पद्यों में रचनाप्रशस्ति देते हुए इसकी रचना का समय दिया है। प्रथम परिच्छेद के प्रथम श्लोक में भगवान शांतिनाथ को प्रणाम कर विद्वानों के बुद्धि रूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य के समान और काव्य-कला में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करने के लिए मातृकाश्लोक-माला रचना की प्रतिज्ञा की है। दूसरे पद्य में कहा गया है कि प्रथम परिच्छेद में 24 तीर्थंकरों का वर्णन करूँगा और दूसरे परिच्छेद में भिन्न-भिन्न पदार्थों का वर्णन करूँगा। तीसरे पद्य में अकार में अर्हत् जिनेश्वर का वर्णन कर पद्य 4 से 27 तक आकार से लेकर झ व्यंजन तक भगवान् आदिनाथ से प्रारम्भ कर भगवान् महावीरपर्यन्त 24 जिनेश्वरों का वर्णन किया गया है। दूसरे परिच्छेद में ञ से प्रारम्भ कर ह ल्ल और क्ष व्यंजनाक्षर का प्रयोग करते हुए 26 पद्यों में विष्णु, शिव, ब्रह्मा, कार्तिकेय, गणेश, सूर्य, चन्द्र, दिग्पाल, इन्द्र, शेषशायी, विष्णु, मुनिपति, राम लक्ष्मण, समुद्र, जिनेश्वर एवं तीर्थंकर आदि को लक्ष्य बना कर रचना की गई है। . इस कृति का यह वैशिष्ट्य है कि प्रत्येक पद्य के चारों चरणों में प्रथमाक्षर में उसी स्वर अथवा .. व्यंजन का प्रयोग सालंकारिक भाषा में किया गया है। कवि ने व्यंजनाक्षरों में त्र और ज्ञ का प्रयोग नहीं किया है। इसके स्थान पर ल्ल और क्ष का प्रयोग किया है। यह ळ डिंगल का या मराठी का है अथवा अन्य किसी का वाचक है, निर्णय अपेक्षित है। छन्दः कौशल - इस लघु कृति में विविध छन्दों का प्रयोग करने से यह स्पष्ट है कि कवि का छन्दःशास्त्र पर भी पूर्ण अधिकार था। इस कृति में निग्न छन्दों का प्रयोग हुआ है:प्रथम परिच्छेद - शार्दूलविक्रीडित 1, अनुष्टुप् 2, उपेन्द्रवज्रा 3,4,7,9, इन्द्रवज्रा 4, 6, 8, 10, 12, 13, 14, 15, 16, 24, 25, 27, मालिनी 11, 21, दोधक 17, 18, 23, सुन्दरी (हरिणप्लुता) 19, 20, 26, स्वागता 22 / द्वितीय परिच्छेद - उपेन्द्रवज्रा 1, 3, 6, 17, 23, इन्द्रवज्रा 2, 5, 8, 9, 18, 23, 25, 26, सुन्दरी (हरिणप्लुता) 7, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 20, 24, मालिनी, 19, 21, वसन्ततिलका - इन्द्रवज्रा 4 (यहाँ कवि ने प्रथम चरण वसन्ततिलका का दिया है, और शेष तीनों चरण इन्द्रवज्रा में दिये हैं।) रचना प्रशस्ति - आर्याछन्द 1, 2, 4, 5, अनुष्टुप् 3, 6 116 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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