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________________ (1) सं० 1559 वर्षे आषाढ सु० 10 सुराणागोत्रे सं० शिवराज भा० सीतादे पुत्र सं० हेमराज भार्या हेमसिरि पु० पूंजा काजा नरदेव श्रीपार्श्वनाथबिंबंकारितं प्र० श्रीधर्मघोषगच्छे श्रीपद्मानन्द सूरिपट्टे नन्दीवर्द्धनसूरिभिः। (2) // ॐ // सं. 1576 वर्षे ज्येष्ठ सुदि 8 र. सुराणागोत्रे सं. हेमराज भार्या सं. हेमश्री पुत्र सं. नरदेव भार्या जबीर पुत्र सं. देवदत्तेन स्वपितृ पुण्यार्थेन कारितं श्री आदिनाथ प्रतिष्ठितं श्री धर्मघोषगच्छे महारक श्री पद्मानन्द सूरिपहे श्री नन्दिवर्द्धन सूरिभिः॥ श्रीः / (3) // ॐ // सं. 1576 व. ज्येष्ठ सुदि 8 रवौ सुराणा गोत्र सं. हेमराज भार्या हेमसिरी पुत्र सं. नरदेव भार्या जबीर सं. देवदत्तेन स्वपितृपुण्यार्थ श्रीवासुपूज्यबिम्ब कारितं प्रतिष्ठितं . श्रीधर्मघोषगच्छे भ० श्रीपद्माणंदसूरिपट्टे भ० श्रीनन्दिवर्द्धनसूरिभिः॥ ... प्रथम लेख में हेमराज की मातुश्री 'सीतादे' का विशिष्ट उल्लेख है। लेख 2 और 3 में हेमराज के पौत्र देवदत्त ने अपने पिता के पुण्यार्थ प्रतिमाओं का निर्माण करवाया है। इन लेखों में नरदेव की पत्नी का नाम जबीर दिया है, जबकि उपर्युक्त प्रशस्ति में गुर्जरी दिया है। मोरखाणो (देसणोक से 12 मील, बीकानेर डिवीजन) स्थित सुसाणी माता का मन्दिर भी संघपति हेमराज ने बनवाया था, किन्तु इसकी प्रतिष्ठा संघवी हेमराज के पौत्र चाहड ने सं. 1573, ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को श्री नन्दीवर्द्धनसूरि के कर-कमलों से करवाई थी। इसलिये निश्चित है सं. 1559 और 1573 के मध्य में सं. हेमराज का स्वर्गवास हो गया हो! यह सुसाणी माता का शिलालेख भी ऐतिह्य एवं वंश-परम्परा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने से यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ, वैसे यह लेख डा. तैस्सितोरी द्वारा जनरल ऑफ दी रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, वोल्युम 13, सन् 1917, पृष्ठ सं. 214 पर मुद्रित हुआ है। (1) ॥ओं॥ श्री सुसाणकुलदेव्यै नमः। मूलाधारनिरोधबुद्धफणिनी कन्दादिमन्दानिले: नाझम्यग्रहराजमण्ड(२) लधिया प्राग्पश्चिमान्तं गता। तत्राप्युज्वलचन्द्रमण्डलगलत्पीयूषपानोल्लसत् कैवल्यानुभवा सदास्तु जगदान(३) न्दाय योगेश्वरी॥१॥ या देवेन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदा या भद्रतादायिनी। या देवी किल कल्पवृक्ष समतां नृणां दधा.......... लौ। या रूपं सुरचित्तहारि नितरां देहे सदा बिनती। सा सूराणासबंशसौख्यजननी भूयात् प्रवृद्धिंक री॥२॥ तन्त्रैः किं किल किं सुमन्त्रजपनैः किं भेषजैर्वावरैः। किं देवेन्द्रनरेन्द्रसेवनतया किं साधुभिः किं धनैः। 308 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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