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________________ करते थे। पूर्णतल्लगच्छीय देवचन्द्रसूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर मुमुक्ष/वैराग्यवान बन गया था। चांगदेव के मामा नेमिनाग और उदयन मन्त्री के सहयोग से खंभात में वि. सं. 1154 माघ शुक्ला चतुर्दशी, शनिवार को महोत्सवपूर्वक इनकी भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा के समय इनका नामकरण हुआ - मुनि सोमचन्द्र। दीक्षानन्तर गुरु के सान्निध्य में रहकर, विद्याध्ययन किया। प्रखर प्रतिभा के कारण कुछ ही वर्षों में सर्व शास्त्रों में निष्णात बन गये। ब्रह्माणी/सरस्वती देवी की साधना की और देवी के दर्शन से सिद्ध सारस्वत बन गये। गुरु के साथ देश-देशान्तर परिभ्रमण कर शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान की अभिवृद्धि की। इनकी विद्वता, संयमशीलता, तेज, प्रभाव, स्पृहणीय गुण और जनाकर्षिणी शक्ति को देखकर, गुरु देवचन्द्राचार्य ने वि. सं. 1166 वैशाख शुक्ला 3 को नागपुर (नागोर)/ खंभात में इनको सूरिमन्त्र प्रदानकर आचार्य पद प्रदानकर हेमचन्द्रसूरि नामकरण किया। आचार्य बनते समय इनकी उम्र केवल 21 वर्ष की थी। वि. सं. 1181 में अणहिलपुर पत्तन में सिद्धराज जयसिंह की उपस्थिति में राज्य सभा में कुमुदचन्द्र और वादी देवसूरि का जो लोक विश्रुत शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें सभा पण्डित के नाते हेमचन्द्र भी उपस्थित थे। अतः निश्चित है कि तत्पूर्व ही अपनी बहुमुखी प्रतिभा और प्रसरित यशोकीर्ति के बल पर ये सिद्धराज जयसिंह के सम्पर्क में आ चुके थे। सं. 1191-92 में सिद्धराज जयसिंह को मालवाविजय पर हेमचन्द्र ने जैन प्रतिनिधि के नाते स्वागत किया था। तब से अर्थात् 1192 से 1199 तक इनका जयसिंह से अटूट सम्बन्ध रहा। मालवा के समृद्ध साहित्य-वैभव के सन्मुख गुजरात की हीन दशा देखकर जयसिंह का हृदय क्षुभित हो उठा। भाषा ज्ञान एवं साहित्य वैभव से गुजरात भी समृद्ध हो, बल्कि दूसरे प्रान्तों के लिए भी सिरमोर बने' इसी भावना से उसने अपनी राज्य सभा में एकमात्र सर्वविद्या विधान सिद्ध सारस्वत हेमचन्द्रसूरि से अत्याग्रहपूर्वक अनुरोध किया कि 'आचार्य! भोज-व्याकरण के समान ही शब्दानुशासन का निर्माण कर गुर्जर धरा को गौरव मण्डित करें।' और हेमचन्द्र ने भी सिद्धराज जयसिंह के अभिलाषानुरूप ही सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक नवीन व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर गुजरात को अभूतपूर्व गौरव प्रदान किया और स्वयं के साथ सिद्ध शब्द जोड़कर सिद्धराज जयसिंह का नाम भी चिरस्थायी बना दिया। तत्पश्चात् भी सिद्धराज की निरन्तर प्रेरणा से हेमचन्द्र को कोश, छन्द, अलंकार शास्त्र तथा साहित्य रचने का अवसर मिला। हेमचन्द्र और जयसिंह दोनों समवयस्क थे। वैसे हेमचन्द्र उनसे मात्र तीन वर्ष छोटे थे। अतः इन दो महानुभावों का परस्पर सम्बन्ध गुरू-शिष्य के रूप में न रहकर प्रगाढ़ मैत्री के रूप में रहा हो, ऐसा प्रतीत होता है। तथापि सिद्धराज सदैव हेमचन्द्र के प्रभाव में रहे / हेमचन्द्र ने सर्व-दर्शन के सम्मत होने का उपदेश दिया तो सिद्धराज ने सर्व धर्मों का समान आराधन किया। इसी के फलस्वरूप शैव मतानुयायी होने पर भी सिद्धराज उनके उपदेशों से जैनेन्द्र धर्म में अनुरक्तमना हुआ और सिद्धपुर में महावीर स्वामी का समृद्ध एवं दर्शनीय सिद्धविहार नामक जैन मन्दिर बनवाया। ___ सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् त्रिभुवनपाल का पुत्र कुमारपाल वि. सं. 1199 मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी को पाटण की राजगद्दी पर बैठा। लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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