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________________ जयसिंह अपने जीवनकाल में कुमारपाल को मारने की सतत चेष्टा में था, अतः कुमारपाल अपने प्राण बचाने के लिये गुप्तवेष धारण कर इधर-उधर भागता रहता था। इसी बीच हेमचन्द्र ने एक बार कुमारपाल को संरक्षण प्रदान कर रक्षा की थी। शुभ लक्षण देखकर राज्यासीन होने का आशीर्वाद भी दिया था। - गुर्जराधिपति बनने के पश्चात् कुमारपाल का सम्पर्क आचार्य हेमचन्द्र से उत्तरोत्तर अविच्छिन्न रूप से गुरु-शिष्य जैसा बढ़ता ही गया। वंशानुगत शिवभक्त होने हुए भी हेमचन्द्र के उपदेश से कुमारपाल का उत्तरावस्था का जीवन प्रायः द्वादश व्रतधारी श्रावक जैसा हो गया था। हेमचन्द्र के प्रभाव से उनके ही निर्देशन में कुमारपाल ने गुजरात को दुर्व्यसनों से मुक्त कराने का सफलतम प्रयास किया। अपने राज्य में प्राणिवध, मांसाहार, असत्य भाषण, वेश्यागमन, परधनहरण, मद्यपान और द्यूतक्रीड़ा आदि का पूर्णत: निषेध कर दिया। राज्य के अधीन 18 प्रान्तों में 14 वर्ष तक पशुवध के निषेध का आदेश 'अमारिपटह' प्रसारित किया। कुमारविहार, त्रिभुवनपाल विहार, झोलिका विहार, मूषकविहार, करम्ब विहार, अजितनाथ मन्दिर (तारंगा) आदि विशाल शिखरबद्ध देव-मन्दिरों का निर्माण करवाकर गुर्जरधरा को मंडित कर दिया। केदार तथा सोमनाथ मन्दिरों का जीर्णोद्धार भी करवाया। __अन्तिम जीवन में कुमारपाल अपने आचार-विचार और व्यवहार से पूर्णत: धर्मनिष्ठ बन गया था। सर्वधर्म-सहिष्णु बनकर, भक्ति और योग में तन्मय हो गया था। यही कारण है कि आचार्य हेमचन्द्र स्वयं अपने ग्रन्थों में कुमारपाल को 'राजर्षि' एवं 'परमार्हत्' जैसे विशिष्टतम विशेषण से सम्बोधित करते हैं। कुमारपाल की प्रार्थना पर ही हेमचन्द्र ने योगशास्त्र, वीतराग स्तोत्र, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र महाकाव्य, द्वयाश्रय काव्य आदि की रचना की। .. वृद्धावस्था में आचार्य हेमन्नन्द्र को लूता रोग लग गया, परन्तु अष्टांग योगाभ्यास द्वारा लीला के साथ उन्होंने उस रोग को नष्ट किया। वि. सं. 1229 में 84 वर्ष की अवस्था में अनशनपूर्वक अन्त्याराधन क्रिया करते हुए एवं कुमारपाल को धर्मोपदेश देते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने दशम द्वार से अपने प्राण त्याग दिये। आचार्य हेमचन्द्र निर्मित साहित्य आचार्य हेमचन्द्र का साहित्य निर्माण का काल लगभग 1190 से 1228 तक माना जाता है। इनके द्वारा रचित पंक्तियों की संख्या 3/4 करोड़ बतायी जाती है। यदि हम इसे अतिशयोक्तिपूर्ण मान लें तब भी वर्तमान में प्राप्त इनकी रचनाओं को देखने से स्पष्ट होता है कि वे अपने समय के मूर्धन्य विद्वान थे। वाङ्मय के सम्पूर्ण इतिहास में किसी अन्य ग्रन्थकार की इतनी अधिक और विविध विषयों की रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं। . प्राप्त साहित्य का विषयानुसार वर्गीकरण इस प्रकार है:व्याकरण- सिद्धहेमशब्दानुशासन - लघु वृत्ति (6000 श्लो.) वृहद्वृत्ति (18000 श्लो.), बृहन्न्यास (84000 श्लो.), प्राकृत व्याकरण वृत्ति (2200 श्लो.), लिंगानुशासन (3684 श्लो.), उणादिगण विवरण (3250 श्लो.), धातुपारायण विवरण (5600 श्लो.)। कोष- 1. अभिधानं चिन्तामणि नाममाला सविवरण (10000 श्लो.) . 2. शेष संग्रह 3. अनेकार्थ कोष (1828 श्लो.) लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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