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________________ षड्भाषाबद्ध चन्द्रप्रभस्तव के कर्ता जिनप्रभसूरि हैं अनुसंधान अंक 33, पृष्ठ 20 पर मुनि श्री कल्याणकीर्तिविजयजी का जिनभक्तिमय विविध गेय रचनाओं शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। इस लेख में पृष्ठ 25-26 पर चन्द्रप्रभस्तव प्रकाशित है। यह स्तोत्र छ: भाषाओं - संस्कृत, प्राकृत, शूरसेनी, मागधी, पैशाचिकी, चूलिका पैशाचिकी, अपभ्रंश और समसंस्कृत प्राकृत भाषा में गुम्फित है। प्रत्येक भाषा में दो-दो पद्य हैं और अन्तिम पद्य घत्ता छन्द में है। इस कृति के कर्ता के सम्बन्ध में लेखक ने पृष्ठ 20 पर लिखा है - कन्नो कोई उल्लेख नथी अर्थात् कर्ता का कोई उल्लेख नहीं है। इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है: 1. प्रकरण रत्नाकर भाग-२ जो कि पण्डित भीमसिंह माणेक ने बम्बई से सन् 1876 में प्रकाशित किया है। उसके पृष्ठ 269 पर यह स्तोत्र प्रकाशित हुआ है। इस स्तोत्र के अन्त में लिखा है - इति श्री जिनप्रभसूरिकृतचन्द्रप्रभस्वामिसत्कं षड्षाभास्तवनं सम्पूर्णम्। . 2. विधि मार्ग प्रपा, जिनप्रभसूरि कृत की भूमिका में अगरचन्द भंवरलाल नाहटा ने पृष्ठ 18 पर स्तुति-स्तोत्रादि की सूची देते हुए षड्भाषामय चन्द्रप्रभ जिनस्तुति (नमो महासेननरेन्द्रतनुज) गाथा-१३ जिनप्रभसूरि का ही माना है। . 3. मैंने (विनयसागर) भी शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य पुस्तक के पृष्ठ 99 पर जिनप्रभसूरि की ही कृति माना है। - आचार्य जिनप्रभसूरि १४वीं-१५वीं शताब्दी के प्रभावक आचार्यों एवं असाधारण विद्वानों में से हैं। ये खरतरगच्छ की लघुखरतर शाखा के द्वितीय जिनेश्वरसूरि के पौत्र शिष्य और जिनसिंहसूरि के शिष्य हैं। भारत के तुगलक शाखा के सम्राटों में मोहम्मद तुगलक के ये प्रतिबोधक भी हैं। प्राकृत और संस्कृत साहित्य के ये प्रौढ़ मनीषियों में से थे। इनके द्वारा निर्मित असाधारण कृतियों में विविध तीर्थकल्प, विधि मार्ग प्रपा और द्वयाश्रय महाकाव्य (कातन्त्र व्याकरण के सूत्र और श्रेणिक चरित्र)। ये माँ पद्मावती के साधक थे। इनके चमत्कारों का वर्णन तपागच्छीय शुभशीलगणि कृत पञ्चशती कथा प्रबन्ध और सोमधर्मगणि कृत उपदेश सप्ततिका में प्राप्त होते हैं। इनके द्वारा लगभग 700 स्तोत्रों का निर्माण हुआ था और कथानकों के अनुसार 500 स्तोत्र तपागच्छ के आचार्य सोमप्रभसूरि को समर्पित किए थे। इनके रचित स्तोत्रों में से लंगभग 80 स्तोत्र प्राप्त होते हैं। इन स्तोत्रों में से कई स्तोत्र अष्टभाषामय, षड्भाषामय, पारसी भाषामय भी प्राप्त होते हैं। इनके उत्कट वैदुष्य को देखते हुए इस स्तोत्र के कर्ता भी जिनप्रभसूरि हो सकते हैं। ___प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों की लेखन-परम्परा में कई स्तोत्रकारों ने अपना नाम श्लेषालङ्कार में, चित्र काव्य में और नाम के पर्यायवाची शब्दों में अथवा आद्यन्त के रूप में भी प्रदान किए हैं। साथ ही कई कृतियों में प्रणेता का नाम न होने पर भी तत्कालीन आचार्यों एवं प्रतिलिपिकारों द्वारा उस आचार्य की कृति को श्रद्धा के साथ मानते हुए अन्त में कृतिरियं श्री जिन....सूरीणां लिखते हैं। इसी प्रकार इस कृति में लेख संग्रह 41
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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