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________________ _ 'गते स्वदेशं प्रति सेरखाने' उक्ति में संभव है, सेरखां के पराजित होने के कारण मांडू के बादशाह ने इसे वापिस बुला लिया हो और उसके स्थान पर पेरोजखान को नया सूबेदार नियुक्त किया हो! अथवा गुजरात के सुलतान का कोई उच्चाधिकारी पेरोजखान नागौर का सूबेदार हो! अस्तु। * श्री अगरचंद जी नाहटा के संग्रह में पेरोजखान के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति 20 पद्यों की प्राप्त है। इस प्रशस्ति के अनुसार १६वीं शताब्दी में गुजरात के सुलतान वजीदुलमुल्क की परम्परा में मुजफ्फर प्रथम (महादफ्फर खां) का भाई शम्सखान का पुत्र पेरोजखान (फिरूजखान) ही नागौर का शासक था।* इस प्रशस्ति से गुजरात के सुलतानों के संबंध में महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक नवीन परिचय प्राप्त होता है। धर्मघोषगच्छीय नन्दिवर्द्धनसूरि और उनकी गुरु-परम्परा प्रशस्ति के पद्य 35 से 38 में लिखा है कि राजगच्छीय शीलभद्रसूरि के पट्टधर श्रीधर्मसूरि हुए जो तीन राजाओं के गुरु थे और जिन्होंने अनलराज (अर्णोराज) की सभा में दिगम्बरवादी पर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की तथा जिन्होंने तीनों वर्गों को प्रतिबोध देकर जैन धर्मानुयायी बनाया। इनकी परम्परा में श्रीपद्मानन्दसूरि गच्छाधीश रूप में विद्यमान हैं तथा इन्हीं के पट्टधर श्रीनन्दीवर्द्धनसूरि ने फलवर्द्धिका तीर्थ में यह प्रतिष्ठा करवाई है। राजगच्छीय पट्टावली के अनुसार इस गच्छ के सर्वप्रथम आचार्य श्रीनन्नसूरि हुए। नन्नसूरि की परम्परा में धर्मसूरि १०वें पाट पर आते हैं। पट्टावली के अनुसार आचार्यों के नाम इस प्रकार है:- 1. नन्नसूरि, 2. अजितयशोसूरि, 3. सर्वदेवसूरि, 4. प्रद्युम्नसूरि, 5. अभयदेवसूरि, 6. धनेश्वरसूरि, 7. अजितसिंहसूरि, 8. वर्द्धमानसूरि, 9. शीलभद्रसूरि; 10. धर्मसूरि। इनमें से, चौथे आचार्य प्रद्युम्नसूरि ने अल्लू (अल्लट, आघाट का नृपति) की राजसभा में दिगम्बरों को पराजित किया था और सपादलक्ष एवं त्रिभुवन गिरि के राजाओं को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इनके शिष्य अभयदेवसरि ने प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर प्रणीत सन्मतितर्क पर 'तत्वबोधविधायिनी' (जिसको वादमहार्णव भी कहते हैं) नामक टीका की रचना की थी। इनके शिष्य धनेश्वरसूरि हुए जो त्रिभुवनगिरि के नृपति कर्दम थे और दीक्षा ग्रहण के पश्चात् धनेश्वरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये धारापति मुंज की सभा के विजेता थे। इन्हीं से इस गच्छ नाम का नाम 'राजगच्छ' हुआ। - धर्मसूरि उस समय के महाप्रभाविक आचार्य थे। इनका दूसरा नाम धर्मघोषसूरि भी प्राप्त होता है। वि० सं० 1156 में इन्हें आचार्य पद प्राप्त हुआ था। इन्हीं के यशस्वी कार्यों के कारण इनके नाम से राजगच्छ धर्मघोषगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्राप्त सामग्री के आधार पर धर्मसूरि के उल्लेखनीय विशिष्ट कृत्यों की नामावली इस प्रकार है:. * टिप्पणी- नाम्ना श्रीमति साहिरेव..... तं सत्यर्दिदौ, श्रीमन्नागपुरे वरे मणिरणत्क्वाणैनिरि-पणे वरे। वाह्यावारिगिराश्रयैकनिलय सौख्यस्यधामौज तद्वाते व्यभिधानमानमकरोत् पेरोजखानः प्रभुः॥१८॥ 1. प्रभावक चरित प्रशस्ति तथा जैन साहित्य नो सं. इतिहास, पृ. 192 2. सिद्धसेनसूरि कृत प्रवचन सारोद्धारटीका प्रशस्ति। 3. प्रभावक चरित प्रशस्ति पद्य 5 4. राजगच्छपटावली (विविधगच्छीय पटावली संग्रह, प्र.६६) लेख संग्रह 313
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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