________________ ओझा जी ने आनंदराम को महाराजा अनूपसिंह का कार्यकर्ता नाजर है, तो कहीं महाराज अनूपसिंह का मुसाहिब माना है। महाराजा सुजानसिंह के समय प्रधान माना है और उनको एक स्थान पर कूटनीतिज्ञ और खवास भी कहा है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि तीनों महाराजाओं के सेवाकाल में रहते हुए वह मुसाहिब और कूटनीतिज्ञ तो था ही। पत्र का सारांश लघु नाटिका के अनुकरण पर षड्भाषा में यह पत्र रूपचन्द्र गणि ने बेनातट आश्रम (बिलाड़ा के उपाश्रय) से लिखा है। देवसभा में इन्द्रादि देवों की उपस्थिति में सरस्वती इस नाटिका को प्रारम्भ करती है। मर्त्यलोक का परिभ्रमण कर आये हुए बृहस्पति आदि देव सभा में प्रवेश करते हैं और मृत्युलोक का वर्णन करते हुए मरु-मण्डल के विक्रमपुर/बीकानेर की शोभा का वर्णन करते हैं। साथ ही सूर्यवंशी महाराजा अनूपसिंह, महाराजा सुजाणसिंह और युवराज जोरावरसिंह के शौर्य और धार्मिक क्रियाकलापों का तथा जनरजंन का वर्णन करते हैं। इन्द्र, सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति आदि समस्त देवताओं की उपस्थिति में उर्वशी के अनरोध पर सरस्वती आगे का वर्ण प्राकत. सौरसेनी. मागधी. पैशाची आदि भाषाओं में मधर शब्दावली में मगर, राजा, प्रधान इत्यादि के कार्य-कलापों का प्रसादगुण युक्त वर्णन करती है। इस प्रकार देवसभा को अनुरंजित कर लेखक महाराजा, राजकुमार और आनंदराम को धर्मलाभ का आशीर्वाद देते हुए पत्र पूर्ण करता है। यह पत्र मिगसर सुदी तीज संवत् 1787 आनंदराम के कुतूहल और उसको प्रतिबोध देने के लिए लिखा गया है। प्रायः जिनेश्वर भगवान् की स्तुति में ही जैन कवियों ने अनेक भाषाओं का प्रयोग किया है, किन्तु व्यक्ति विशेष के लिए पत्र के रूप में अनेक भाषाओं का प्रयोग अभी तक देखने में नहीं आया, इस कारण 'यह कृति अत्यन्त महत्व की है और स्वलिखित होने से इसका महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। मूल पत्र प्रस्तुत हैं: विक्रमनगरीयप्रधानश्रीआनन्दरामं प्रति वेनातटात् श्रीरूपचन्द्र (रामविजयोपाध्याय) प्रेषितम् नाटिकानुकारि षड्भाषामयं पत्रम् / ॥ई०॥ स्वस्तिश्रीसिद्धसिद्धान्ततत्त्वबोधा (ध) विधायिने। अस्तु विद्याविनोदेनात्मानं रमयते सते // 1 // कताधिवसतिः साधः श्रीमदवेनातटाश्रमे॥ षड्भाषो (षा) लेखलीलायां रूपचन्द्रः प्रवर्तते // 2 // अथाऽत्र पत्रोपक्रमे कविः सरस्वती सम्भाषते स्वर्गाधिवासिनि सरस्वति मातरेहि, ब्रूहि त्वमेव ननु देवसदोविनोदम्। नाट्येन केन भगवान्मघवानिदानी, सन्तुष्यति स्वहृदि भावितविश्वभावः // 3 // सरस्वती-वत्स ! श्रृणु मध्येसुरसभं देवः कथारसकुतूहली। किञ्चिद्विवक्षुरखिला-मालुलोक सुरावलीम् // 4 // लेख संग्रह 175