________________ देवार्चन हेतु स्नानादि कर शुद्ध धोती पहनकर, शुद्ध उत्तरीय वस्त्र धारण कर गृहचैत्य में दक्षिण चरण से प्रवेश करें। (20) मंदिर में प्रवेश कर धरणेन्द्र आदि सेवित पार्श्व प्रतिमा का, एकाग्र . मन से निरीक्षण करें। (21) प्रतिमा का मोरपिच्छी से सम्मार्जन करें। परिकर युक्त प्रतिमा को चंदन मिश्रित जल से स्नपित करें। घृत दीप जलाकर चन्दन का विलेपन करें। अलंकारादि से विभूषित करें। पुष्प पूजा करें। गीत गान करें। सुगंधित धूप करने के पश्चात् आरती उतारें। तदनंतर घंटा बजायें और विविध वादित्रों के साथ संगीतमय प्रभु की स्तुति करें और प्रभु के समक्ष नृत्य करें। मंदिर से निकलते समय द्वार पर याचकों को दान देकर घर आयें और स्वधर्मी बन्धुओं के साथ अतिथि संविभाग का पालन करते हुए निर्वद्य आहार करें। (30) मंगल चैत्य पर्युपासना रूप धर्म के समान अन्य कोई सुकृत नहीं है। नवम पूर्व में भी इसे ही सुधर्म बतलाया है। (31) केवली भगवंत सिद्धान्तों में चार महामंगल कहते हैं- अरहंत, सिद्ध, साधु और अर्हत धर्म का शरण स्वीकार करे। इन चारों महामंगलों का छठे पूर्व में वर्णन प्राप्त है। (33) देश विरति द्रव्य तथा भाव पूजा करे और संयमी केवल भाव पूजा करें। बादरायण, ऋषि, कूप, भार्गव कूप, अर्बुदगिरि और अष्टापदादि स्थानों में ध्याय साधना करने पर साधक विरज और तमरहित होता है। (37) शुद्ध सम्यक्त्वधारी इस देवतत्त्व की आराधना कर धार्मिक होकर वीतराग बनता है। तृतीय अध्याय - तृतीय अध्याय में 16 गद्य सूत्र हैं जिनमें देशव्रतधारियों के व्रतों का विवेचन है। सम्यक्त्व धारण करने वाला उपासक बारह व्रतों को ग्रहण करता है। निरतिचारपूर्वक व्रतों का पालन करते हुए अन्तिमावस्था में निर्जरा हेतु उपासक की 11 प्रतिमाओं को वहन करता है। इन एकादश प्रतिमाओं का विवेचन उपासकदशा सूत्र में वर्णित का ही इसमें विस्तार से निदर्शन है। अन्त में लिखा है कि ११वीं प्रतिमाधारक गृही भी मुक्ति पद को प्राप्त करता है। १२वीं प्रतिमा तो युगप्रधान योगी पुरुष ही वहन. करते हैं। चतुर्थोध्याय - इस अध्याय में जीव के बंध-मोक्ष का विवेचन करते हुए ग्रन्थि भेद के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति से लेकर सयोगी केवली एवं अयोगी केवलि पर्यन्त का विस्तृत वर्णन है। यह सारा वर्णन पूर्वाचार्यों द्वारा रचित साहित्य में प्राप्त होता ही है। इसमें सयोगी केवली को जीवन मुक्त चारित्र योगी शब्द से भी अभिहित किया है। पाँचवां अध्याय - यह नव गद्य सूत्रों में है। इसमें कहा गया है कि तीर्थंकरों एवं केवलियों के अभाव में सर्वज्ञकल्प श्रुतकेवली युगप्रधान ही धर्मपथ का संचालन करता है। महावीर के 21 हजार वर्ष के शासन में सुधर्म स्वामीजी से लेकर दुप्पसह पर्यन्त दो हजार चार युगप्रधानाचार्य होंगे। तत्पश्चात् धर्म की महत्ती हानि होगी और इसी बीच अविद्या और असत्य का बोल-बाला होगा। तत्पश्चात् आगामी उत्सर्पिणी में पद्मनाभ तीर्थंकर होंगे। उनके समय में पुनः सुसाधु होंगे जो शास्त्रसम्मत साध्वाचार का पालन करेंगे। 36 गुण युक्त होंगे। 47 दोष रहित आहार ग्रहण करेंगे और युगप्रधान पद को धारण करने वाले सर्वज्ञ तुल्य होंगे। (4) भगवान् महावीर के कुछ समय पश्चात् केवलियों का अभाव होने से परिहार-विशुद्धि आदि चारित्रों का अभाव हो जाएगा। श्रुत ज्ञान की क्रमशः क्षीणता को देखकर आर्य धर्म की रक्षा हेतु 338 लेख संग्रह