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________________ चाहिए और आज्ञानुसार ही आचरण करना चाहिए। (10-11) स्वात्मज्ञान विद् कोविद देशवृत्ति परायण गुरुप्रसाद से ही संसार सागर से पार होते हैं, अतः आद्य गुरु तत्त्व ही कर्म निर्जरा का कारण है। (11) इसीलिए भगवान आदिदेव ने कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् वाचंयमों की मनःशुद्धि, जनोपकार और * विश्वहित के लिए गुरुतत्त्व का प्रतिपादन किया है। (12) दुर्दमनीय मोह को जानकर देशवृत्ति-धारक कठोरतापूर्वक सर्वदा आचाम्ल तप करते हुए द्वादशांगी विद्या का श्रवण करे। (13) संयतात्मा मुमुक्षु आवश्यक कर्म के पश्चात् पंचमुष्टि लुंचन कर, परिग्रह त्यागकर, गुरुकुल निवासी होकर, आज्ञापालक होकर, निरवद्य भिक्षाग्रहण करते हुए अन्तेवासी बनकर द्वादशांगी का अध्ययन करे। (14) 36 गुणधारक होते हुए भी अपक्व योगी मान्य नहीं होता है। पति की आज्ञा बिना मुमुक्षिणी को भी दीक्षा न दे। पति की आज्ञा से साध्वी बनाये। (15) कालचक्र की गति से महनीयतम संयमभार, वहन करने में अक्षम होकर इस मार्ग का त्याग करेंगे। मृषोपदेश कुशल आसुरायणं द्विज वेदवाक्यों का विपरीत अर्थ कर गुरु बनेंगे। इससे श्रेष्ठ धर्म का नाश होगा। (16). तीर्थंकरों के अभाव में भी महादेव क्षेत्र (महाविदेह क्षेत्र) में यह द्वादशांगी अस्खलित रूप से दुरंत काल ग्लानि की निर्नाशिका बनी रहेगी। (17) इस क्षेत्र में अन्तिम तीर्थंकर महावीर के पश्चात् 21 हजार वर्ष तक यह द्वादशांगी शनैः-शनैः क्षीण होती जाएगी। अन्तिम केवली जंबू स्वामी के निर्वाण के पश्चात् कालवेग के कारण मुक्तिद्वार बन्द हो जाएगा। (18) आगामी चौवीसी के समय पुनः शुद्धमार्ग के प्ररूपक गुरु होंगे। अतः देशवृत्तियों को ऐसे गुरु की ही उपासना करनी चाहिए। (19) - द्वादशांगीधारक शुद्ध-चारित्रिक गुरुओं के अभाव में पिप्पलाद आदि ऋषि श्रुतिवाक्यों के विपरीत अर्थ की प्रतिपादना करेंगे। (20) चारित्र-परायणों के अभाव में शासन की दुर्दशा हो जाएगी। (22-23) दैशिक एकादश प्रतिमा वहन करते हुए तपोयोग में प्रवृत्त हो और अर्हत् प्रतिमाओं की अर्चना * 'करें। (24). . साधुजन वर्षा के अभाव में भी एक स्थान पर चातुर्मास करें। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण हेतु पांच दिन तक पर्युषणा की आराधना करें। शुद्ध धर्म की आराधना करने वाले ही अर्हत् धर्म के अधिकारी होते हैं और वह ही विरजस्क होते हैं। द्वितीय अध्याय - इसमें देव तत्त्व का वर्णन 38 गद्य सूत्रों में है। श्रमणोपासक प्रातः सामायिक करें, दोषों के परिहार निमित्त प्रतिक्रमण करें। नित्य नैमित्तिक कार्य के पश्चात् चैत्यवन्दन करें। जिनपूजन की पद्धति बतलाते हुए कहा है:- चन्दनचूर्ण से पूजन कर पंच परमेष्ठियों के गुणों का चिंतन करते हुए भावस्तवना कर नमन करें। शाश्वत चैत्यों को नमन करें। अष्टापद तीर्थस्थित ऋषभादि वर्धमान चौवीस तीर्थंकरों को साष्टांग नमस्कार करें। (14) अतीत, वर्तमान और अनागत अहँतों, केवलियों, सिद्धों और भरत, ऐरवत, महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान साधुओं को नमस्कार करें। लेख संग्रह 337
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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