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________________ भागवत परम्परा मान्य आठवें अवतार होने से उनकी तत्त्वमयी विद्या/उपदेश समस्त भारतीयों के लिए , ग्राह्य/उपादेय हो इस दृष्टि से उपयुक्त ही है। किसी परम्परा का नाम न लेकर केवल 'भारतीय' . शब्द का प्रयोग भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ग्रन्थकार इसके प्रणेता कौन हैं? इसका इस ग्रन्थ में कहीं उल्लेख नहीं है, किन्तु इसके पंचमाध्याय के सूत्रांक एक में 'अथातो निगमस्थिति-सिद्धान्त-सिद्धोपमानां धर्मपथसार्थवाहानां युगप्रधानानां चरित्रकौशल्यं वर्णयामः' कहा है। इसमें उल्लिखित 'निगम' शब्द से कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में तपागच्छ में आचार्य इन्द्रनन्दिसूरि हुए हैं, विचार/भेद के कारण इनसे निगम सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। इसलिए इन्हें 'निगमाविर्भावक' विशेषण से संबोधित भी किया गया है। इन्द्रनन्दिसूरि श्रीलक्ष्मीसागरसूरि के शिष्य थे। लक्ष्मीसागरसूरि का जन्म 1464, दीक्षा 1477, आचार्यपद 1508 और गच्छनायक 1517 में बने थे अतः इन्द्रनन्दि का समय भी १६वीं शती के दो चरण अर्थात् 1501 से 1550 के लगभग मान सकते हैं। यदि यह ... ग्रंथ इन्हीं का माना जाय तो इस ग्रंथ का रचना काल भी १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध ही है। इनके इस प्रकार के कई ग्रन्थ भी प्राप्त होते हैं:१. भव्यजनभयापहार 2. पंचज्ञानवेदनोपनिषद् 3. भारतीयोपदेश 4. विद्यातत्त्व 5. निगम स्तव 6. वेदान्त स्तव 7. निगमागम ग्रन्थ-परिचय इस ग्रन्थ में पाँच अध्याय हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: प्रथम अध्याय - इस अध्याय में 26 गद्य सूत्र हैं। (1-2) प्रारम्भ में वृष शब्द की व्युत्पत्ति देते हुए कहा है कि, वृषभदर्शन के अध्येता एवं आचारक चौदह गुणस्थानों का आरोहण करते हुए शाश्वत सिद्ध सुख को प्राप्त करता है, अतः 'आर्षभीर्हती विद्या' की उपासना करो जिससे दुरन्त मृत्यु पथ को पार कर जाओगे। (3-5) सर्वप्रथम आत्मतत्त्व को पहचानो। कर्म निर्जरा के लिए तीन तत्त्व प्रधान हैं:गुरुतत्त्व, देवतत्त्व, धर्मतत्त्व। इनमें प्रथम गुरुतत्त्व है। गुरुतत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है: अपरिग्रही, निर्मम, आत्मतत्त्व विद्, छत्तीस गुणों से युक्त गुरु ही आराधनीय होता है। (6) वह आर्षभायण रागादि निवृत, गुणवान, गुरुनिर्देश पालक और द्वादशांगी विद्या का पारंगत होता है। ऐसे ही आराध्य गुरुतत्त्व की देशव्रतियों को उपासना करनी चाहिए। (7-8) श्रमणोपासक के लिए विविध विज्ञान, अतिशय श्रुत-अवधि, काल-ज्ञान वेत्ता युगप्रधान ही सेव्य है। (9) जो ईषत् द्वादशांगीवेत्ता हैं। क्षेत्र-कालोचित व्रतचर्या का पालन करते हैं, स्वधर्म सत्ता रूप सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, उन श्रमणों का उपदेश ही देशिकों को श्रवण करना 336 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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