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________________ है। ये उच्च कोटि के विद्वान थे। साथ ही चमत्कारी और मन्त्रवादी भी थे। वृद्धजनों के मुख से यह ज्ञात होता है कि दैवीय मन्त्र शक्ति से इन्हें ऐसी विद्या प्राप्त थी कि वे इच्छानुसार आकाशगमन कर सकते थे। विश्व प्रसिद्ध आब तीर्थ की अंग्रेजो द्वारा आशातना होते देखकर इन्होंने विरोध किया था। राजकीय कार्यवाही (अदालत) में समय-समय पर स्वयं उपस्थित होते थे और अन्त में तीर्थ रक्षा हेतु सरकार से 11 नियम प्रवृत्त करवाकर अपने कार्य में सफल हुए थे। ऐसा खीमेल श्रीसंघ के वृद्धजनों का मन्तव्य है। संवत् 1952 में इनका स्वर्गवास हुआ था। जैन शास्त्रों और परम्परा के विशिष्ट विद्वान् थे। इन्हीं की परम्परा में इन्हीं के शिष्य गणनायक सुखसागर परम्परा प्रारम्भ हुई जो आज भी शासन सेवा में सक्रिय है। प्रणेताओं का परिचय देने के बाद वादी और प्रतिवादी का परिचय भी देना आवश्यक है अतः वह संक्षिप्त में दिया जा रहा है: विजयराजेन्द्रसूरिः- इनका जन्म 1882, भरपुर में हुआ था। आपके पिता-माता का नाम केसरदेवी ऋषभदास पारख था। इनका जन्म नाम रत्नराज था। यति श्री प्रमोदविजयजी की देशना सुनकर रत्नराज ने हेमविजयजी से यति दीक्षा संवत् 1904 में स्वीकार की। श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरिजी से शिक्षा ग्रहण की और उनके दफ्तरी बने। 1924 में आचार्य पद प्राप्त हुआ और विजयराजेन्द्रसूरि नामकरण हुआ। उसी वर्ष क्रियोद्धार किया। संवत् 1963 पोष शुक्ला सप्तमी को आपका स्वर्गवास हुआ। सच्चारित्र निष्ठ आचार्यों में गणना की जाती थी। अभिधान राजेन्द्रकोष इत्यादि आपकी प्रमुख रचनाएं हैं जो कि आज भी शोध छात्रों के लिए मार्ग दर्शक का काम कर रही है। इन्हीं से त्रिस्तुतिक परम्परा विकसित हुई। मध्य भारत और राजस्थान में कई तीर्थों की स्थापना की। ऐसा प्रतीत होता है कि वादी और प्रतिवादी अर्थात् विजयराजेन्द्रसूरि और झवेरसागरजी में चार विषयों के लेकर मतभेद उत्पन्न हुआ, चर्चा हुई और अन्त में निर्णायक के रूप में इन दोनों ने श्री बालचन्द्राचार्य और ऋद्धिसागरजी को स्वीकार किया। क्योंकि ये दोनों आगमों के ज्ञाता और मध्यस्थ वृत्ति के धारण थे। लिखित रूप में कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता है किन्तु उनके द्वारा विवादित चार प्रश्नों के उत्तर निर्णय के रूप में होने के कारण यह सम्भावना की गई है। रचना संवत् और स्थान निर्णय प्रभाकर ग्रन्थ की रचना प्रशस्ति में लिखा है कि श्री जिनमुक्तिसूरि के विजयराज्य में वैशाख शुक्ल अष्टमी के दिन विक्रम संवत् 1930 में इस ग्रन्थ की रचना रत्नपुरी में की गई। जो कि इस निर्णय के लिए ये दोनों बुलाने पर रतलाम आए थे। ग्रन्थ की रचना उपाध्याय बालचन्द्र और संविग्न साधु ऋद्धिसागर ने मिलकर की है। श्रीमच्छ्रीजिनमुक्तिसूरिंगणभृद्ववर्तिचञ्चद्गुणा स्फीत्युद्गीर्णयसागणैखरतरे स्याद्वादनिष्नातधी: राज्ये तस्यसुखावहेगुणवतामभ्राग्नीनंदक्षितौ(१९३०) वर्षे राधवलक्षपक्षदिवसेचन्द्राष्टमी सतिथौ।। 1 / / 280 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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