________________ स्फुट रचनायें : - आबू यात्रा स्तवन (सं० 1821), फलौदी पार्श्व स्तवन, अल्प-बहुत्व स्तवन, सहस्रकूट स्तवनादि अनेक छोटी-मोटी रचनायें प्राप्त है। शिष्य परम्परा महोपाध्याय जी की शिष्य परम्परा भी विद्वानों की परम्परा रही है। इन्हीं के शिष्य पुण्यशीलगणि (जन्म नाम - पद्मो, विक्रम संवत् 1860 में दीक्षा) प्रौढ़ विद्वान् थे। इन्होंने महाकवि जयदेव रचित गीत गोविन्द के अनुकरण पर लोक-गीतों में गेय रागों एवं देशियों में संस्कृत भाषा में चतुर्विंशति-जिन्द्रस्तवनानि नाम से चौबीसी की रचना संवत् 1859, पाली में ही भगवानदास के आग्रह से की थी। इसकी 'एक मात्र प्रति मेरे निजी संग्रह में है। और, मैंने ही संवत् 2004 में इस प्रति को प्रकाशित करवाया था। . पुण्यशीलगणि के पौत्र शिष्य उपाध्याय शिवचन्द्र हुए। दीक्षा नन्दी सूची के अनुसार तत्कालीन गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि ने सं० 1835, वैशाख सुदि 3 के दिन बालोतरा में अपनी प्रथम चन्द्र नन्दी में इनको दीक्षित किया था। इनका जन्म नाम था शम्भू और दीक्षा नाम था शिवचन्द्र। इनको गणि एवं उपाध्याय पद जिनचन्द्रसूरि ने अथवा जिनहर्षसूरि ने प्रदान किया होगा। इन्होंने तत्कालीन आचार्य जिनहर्षसूरि के साथ कई वर्षों तक रहकर उन्हें पढ़ाया था। इन्हीं के साथ रहते हुए इन्होंने सं० 1871 में भादवा बदी 10 के दिन अजीमगंज में बीसस्थानक पूजा की रचना की। इस कृति की भाषा, शैली, शब्दावली को देखने से यह स्पष्ट है कि यह रचना इन्हीं की है, किन्तु इन्होंने तत्कालीन गच्छनायक जिनहर्षसूरि के सौजन्यपूर्ण व्यवहार को देखते हुए रचयिता में उन्हीं का नाम दे दिया है, ऐसा स्पष्ट है। . इनकी संवतोल्लेख वाली रचनाओं को देखने से यह स्पष्ट है कि सं० 1876 से 1879 तक इनका निवास-स्थान जयपुर ही रहा। जयपुर में रहते हुए इन्होंने निम्न नवीन कृतियों की रचना की:१. नन्दीश्वर द्वीप पूजा - सं० 1876 ज्येष्ठ सुदि 1, जयपुर श्री संघ एवं जेठमल कोठारी के आग्रह से। 2. इक्कीस प्रकारी पूजा - सं० 1878, माघ सुदि 5 / 3. ऋषिमंडल-२४ जिनपूजा - 1878, आश्विन सुदि 5, जयपुर। 4. प्रद्युम्नलीला प्रकाश - 1878, वैशाख सुदि 11 / इसकी रचना इन्होंने संस्कृत साहित्य में मूर्धन्य विद्वान् महाकवि बाणभट्ट की कादम्बरी के अनुसरण पर समास बहुल सालंकारिक गद्य में की है, जो इनके वैदुष्य को अभिव्यक्त करती है। इसकी एकमात्र अपूर्ण प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के शाखा कार्यालय चित्तौड़ के यति बालचन्द्रजी के संग्रहालय में सुरक्षित है। संवतोल्लेख वाली एक और रचना प्राप्त है : सिद्ध छिहोत्तरी र. सं. 1889, जैसलमेर। इनके अतिरिक्त पुष्पांजलि स्तोत्र एवं 1011 स्तवनादि स्फुट रचनायें भी प्राप्त हैं। इन्हीं के उपदेश से आमेर में चन्द्रप्रभ चैत्य का संवत् 1877 में निर्माण हुआ था। प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी। इन्हीं के समय में काष्ठमय नंदीश्वर द्वीप की रचना हुई थी। तभी से जयपुर जैन श्रीसंघ के द्वारा आज भी आमेर में आसोज सुदि तीज को नंदीश्वर द्वीप की पूजा होती है। संभवतः इनका स्वर्गवास 1889 के पश्चात् ही हुआ है। इनकी परम्परा में रत्नविलास (रामचन्द्र, उम्मेदचन्द्र आदि) विद्वान् हुए। इसी परम्परा में विजयचन्द्र जो कि बीकानेर गद्दी के श्री पूज्य जिनविजेन्द्रसूरि हुए। अब यह परम्परा लुप्त हो गई है। लेख संग्रह 173