________________ नाटिकानुकारि षड्भाषामयं पत्रम् षड्भाषा में यह पत्र एक अनुपम कृति है। १८वीं शताब्दी में भी जैन विद्वान् अनेक भाषाओं के जानकार ही नहीं थे अपितु उनका अपने लेखन में प्रयोग भी करते थे। लघु नाटिका के अनुकरण पर विक्रम संवत् 1787 में महोपाध्याय रूपचन्द्र (रामविजय उपाध्याय) ने बेनातट (बिलाडा) से विक्रमनगरीय प्रधान श्री आनंदराम को यह पत्र लिखा था। इसकी मूल हस्तलिखित प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रहालय में क्रमांक 29606 पर सुरक्षित है। यह दो पत्रात्मक प्रति है। 25.3411.2 से. मी. साईज की है। प्रति पृष्ठ 15 पंक्ति हैं और प्रति पंक्ति 51 अक्षर हैं। पत्रलेखक रूपचन्द्र उपाध्याय द्वारा स्वयं लिखित है, अतः इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। ____ इस पत्र के लेखक महोपाध्याय रूपचन्द्र हैं। पत्र का परिचय लिखने के पूर्व लेखक और प्रधान आनंदराम के सम्बन्ध में लिखना अभीष्ट है। महोपाध्याय रूपचन्द्र खरतरगच्छालंकार युगप्रधान दादा श्रीजिनकुशलसूरिजी महाराज की परम्परा में उपाध्याय क्षेमकीर्ति से निःसृत क्षेमकीर्ति उपशाखा में वाचक दयासिंहगणि के शिष्य रूपचन्द्रगणि हुए। दीक्षा नन्दी सूची के अनुसार इनका जन्मनाम रूपौ या रूपचन्द था। इनका जन्म सं० 1744 में हुआ था। इनका गोत्र आंचलिया था और इन्होंने वि० सं० 1756 वैशाख सुदि 11 को सोझत में जिनरत्नसूरि के पट्टधर तत्कालीन गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि से दीक्षा ग्रहण की थी। इनका दीक्षा नाम था रामविजय। किन्तु इनके नाम के साथ जन्मनाम रूपचन्द्र ही अधिक प्रसिद्धि में रहा। उस समय के विद्वानों में इनका मूर्धन्य स्थान था। ये उद्भट विद्वान् और साहित्यकार थे। तत्कालीन गच्छनायक जिनलाभसूरि और क्रियोद्धारक संविग्नपक्षीय प्रौढ़ विद्वान् क्षमाकल्याणोपाध्याय के विद्यागुरु भी थे। सं० 1821 में जिनलाभसूरि ने 85 यतियों सहित संघ के साथ आबू की यात्रा की थी, उसमें ये भी सम्मिलित थे। विक्रम संवत् 1834 में 90 वर्ष की परिपक्व आयु में पाली में इनका स्वर्गवास हुआ था। पाली में आपकी चरणपादुकाएँ भी प्रतिष्ठित की गई थीं। इनके द्वारा निर्मित कतिपय प्रमुख रचनायें निम्न हैं: संस्कृतः गौतमीय महाकाव्य - (सं० 1807) क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित है। गुणमाला प्रकरण - (1814), चतुर्विंशति जिनस्तुति पञ्चाशिका (1814), सिद्धान्तचन्द्रिका "सुबोधिनी" वृत्ति पूर्वार्ध, साध्वाचार षट्त्रिंशिका षट्भाषामय पत्र आदि। बालावबोध व स्तबक : भर्तृहरि-शतकत्रय बालावबोध (1788) अमरुशतक बालावबोध (1791), समयसार बालावबोध (1798), कल्पसूत्र बालावबोध (1811), हेमव्याकरण भाषा टीका (1822) और भक्तामर, कल्याणमन्दिर, नवतत्व, सन्निपातकलिका आदि पर स्तबक। 1. म. विनयसागर एवं भंवरलाल नाहटा, खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची, पृष्ठ 26, प्रकाशक : प्राकृत भारती आकदमी, जयपुर। 172 लेख संग्रह