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________________ साहित्य में ही नहीं अपितु विश्व साहित्य में भी इस कोटि की अन्य कोई रचना प्राप्त नहीं है। "एगस्स सुत्तस्स अणेगो अत्थो" को प्रमाणित करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० 1649 में लाभपुर (लाहौर) में की और काश्मीर विजय प्रयाण के समय सम्राट अकबर को विद्वत्सभा में सुनाया था। भाषात्मक लघुगेय 563 कृतियों का संग्रह कर "समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि' के नाम से श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा ने वि० सं० 2013 में प्रकाशन किया था। इस कवि के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का परिचय प्राप्त करने के लिए मेरे द्वारा लिखित महोपाध्याय समयसुन्दर पुस्तक द्रष्टव्य है। महाकवि कालिदास रचित मेघदूत नामक लघु काव्य जन-जन की जिह्वा पर विलास कर रहा है। इस पर जैन श्रमणों द्वारा रचित निम्न टीकाएँ प्राप्त हैं - 1. आसड कवि - रचना सम्वत् १३वीं शती, 2. श्रीविजयगणि, 3. सुमतिविजयगणि, 4. चारित्रवर्धनगणि 5. क्षेमहंसगणि, 6. कनककीर्तिगणि 7. ज्ञानहंस 8. महिमसिंहगणि 9. मेघराजगणि 10. विजयसूरि। मेघदूत रसिक कवियों का प्रिय काव्य रहा है, इसलिए इस पर पादपूर्ति साहित्य लिखकर जैन कवियों ने कवि कालिदास को अमर बना दिया है। जैन कवियों द्वारा रचित मेघदूत पादपूर्ति के रूप में निम्न काव्य प्राप्त होते हैं - 1. पार्वाभ्युदय काव्य : जिनसेनाचार्य, प्रत्येक चरण की पादपूर्ति की गई है, डॉ. के.बी. पाठक द्वारा सम्पादित होकर सन् 1894 में प्रकाशित हुआ है। 2. जैनमेघदूतम् : मेरुतुंगसूरि, इस पर शीलरत्नगणि महिमेरुगणि आदि की टीकाएँ भी प्राप्त हैं। जैन आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है। 3. नेमिदूतम् : विक्रमकवि : उपाध्याय विनयसागर द्वारा सम्पादित होकर सन् 1958 में दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है। शीलदूतम् : चारित्रसुन्दरगणि, सं. 1484 : यशोविजय जैन ग्रन्थमाला काशी से प्रकाशित। चन्द्रदूतम् : विमलकीर्ति, सं. 1681 / 6. मेघदूतसमस्यालेख : महोपाध्याय मेघविजय, सं. 1727 : मुनि जिनविजय सम्पादित विज्ञप्ति लेख संग्रह में सन् 1960 में प्रकाशित। 7. चेतोदूतम् : 8. हंसपादाङ्कदूतम् : श्री नाथूरामजी प्रेमी ने विद्वद्रत्नमाला के पृष्ठ 46 में इसका उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त जैनेतर कवियों में अवधूत रामयोगी रचित (सं. 1423) सिद्धदूतम् : श्री हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावलि, पाटण के तृतीय ग्रन्थाङ्क के रूप में सन् 1927 में प्रकाशित और आशुकवि पं. नित्यानन्दशास्त्री रचित हनुमद्रूतम् : वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित भी प्राप्त होते हैं। इस ग्रन्थ में रचना सम्वत् प्राप्त नहीं है, किन्तु इसके द्वितीय अर्थ में "अस्वाधिकारप्रमत्तश" इसका अर्थ करते हुए टीकाकार ने लिखा है - "साभिप्रायं चैतत् विशेषणं परिग्रहत्यजनेन उद्धृतक्रियत्वात्" यह क्रियोद्धार जिनचन्द्रसूरि ने वि० सं० 1614 में किया था। टीकाकार जिनचन्द्रसूरि के लिए "खरतरगच्छाधीश्वर" शब्द का प्रयोग तो अवश्य करता है, किन्तु सम्राट अकबर द्वारा प्रदत्त "युगप्रधान पद" का प्रयोग नहीं करता है, अतः इसका रचना समय वि० सं० 1641 और 1649 के मध्य का माना जा सकता है क्योंकि समयसुन्दरजी की मेधावी प्रतिभापूर्ण रचना भावशतक की विक्रम सम्वत् 1641 में की प्राप्त है। 96 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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