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________________ महोपाध्याय-श्री समयसुन्दरगणिरचितः मेघदूत-प्रथमपद्यस्याभिनव-त्रयोऽर्थाः (मेघदूत प्रथम पद्य के 3 अभिनव अर्थ) "महाराणा कुम्भा रा भींतड़ा अर समयसुन्दर रा गीतड़ा" की प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार महोपाध्याय समयसुन्दर अकबर प्रदत्त युगप्रधान पदधारक श्री जिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य श्री सकलचन्द्रगणि के शिष्य थे। सकलचन्द्रगणि का छोटी अवस्था में स्वर्गवास हो गया था। नाल दादाजी (बीकानेर) में सम्वत्....... में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि प्रतिष्ठित चरण विद्यमान हैं। समयसुन्दरजी ने अपनी प्रत्येक कृति में 'खरतरगच्छीय श्री जिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य सकलचन्द्रगणि का मैं शिष्य हूँ' ऐसा उल्लेख किया है, किन्तु कुछ विद्वानों ने 'तपागच्छीय सकलचन्द्रगणि का शिष्य मानकर समयसुन्दरजी तपागच्छ के हैं', इस प्रकार का प्रतिपादन किया है जो कि पूर्णतया भ्रामक है। ... महाकवि धनपाल ने "सत्यपुर महावीर उत्सव' में जिस नगर की ओर संकेत किया है उसी सत्यपुर अर्थात् सांचोर में कवि ने जन्म लिया था। ये पोरवाल (प्राग्वाट) जाति के थे और इनके मातापिता का नाम लीलादेवी और रूपसी था। मेरे मतानुसार इनका जन्म वि.सं. 1610 के लगभग हुआ था। वादी हर्षनन्दन ने अपने समयसुन्दर गीत में "नवयौवन भर संयम ग्रह्यौजी" के अनुसार अनुमानतः वि.सं. 1628-30 के मध्य इनकी दीक्षा हुई होगी। वाचक महिमराज (जिनसिंहसूरि) और समयराजोपाध्याय इनके शिक्षा-गुरु थे। विक्रम सम्वत् 1703, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अहमदाबाद में इनका स्वर्गवास हुआ था। इसकी विशाल शिष्य परम्परा थी जो कि २०वीं शताब्दी तक चली। समयसुन्दरजी को गणि पद वि. सं. 1641 से पूर्व ही युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने अपने हाथों से प्रदान किया था। वि. सं० 1649 में जब जिनचन्द्रसूरिजी ने सम्राट अकबर के हाथों युगप्रधान पद प्राप्त किया था उसी महोत्सव के समय इनको वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया था। वि० सं० 1677 के पश्चात् स्वयं के लिए पाठक शब्द का उल्लेख मिलता है अतः इससे पूर्व ही इनको उपाध्याय पद प्राप्त हो गया होगा। वि० सं० 1680 के पश्चात् गच्छ में वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और पर्यायवृद्ध होने के कारण ये महोपाध्याय कहलाये। . कविवर समयसुन्दरजी केवल जैनागम, जैन साहित्य और स्तोत्र साहित्य के धुरन्धर विद्वान् ही नहीं थे अपितु व्याकरण, अनेकार्थी साहित्य, लक्षण, छन्द, ज्योतिष, पादपूर्ति साहित्य, चार्चिक, सैद्धान्तिक, रास-साहित्य और गीति साहित्य के भी ये उद्भट विद्वान् थे। पूर्ववर्ती कवियों द्वारा सर्जित द्विसंधान, पञ्चसंधान, सप्तसंधान, चतुर्विंशति संधान, शतार्थी, सहस्रार्थी कृतियाँ तो प्राप्त होती हैं जो कि उनके वैदुष्य को प्रकट करते हैं, किन्तु "राजानो ददते सौख्यम्" पंक्ति के प्रत्येक अक्षर का व्याकरण और अनेकार्थी कोषों के माध्यम से 1-1 लाख अर्थ कर जो अष्टलक्षी/ अर्थरत्नावली ग्रन्थ का निर्माण किया, वह तो वास्तव में इनकी बेजोड़ अमर कृति है। समस्त भारतीय लेख संग्रह 95
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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