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________________ ईडर नगर के अधिपति महाराजा भाण अच्छे कवि थे और कवियों का सत्कार सम्मान करते थे। सातवें-आठवें पद्य में श्री जिनमाणिक्यसूरि के तप-तेज, संयम का वर्णन करते हुए लिखा है कि श्री अनन्तहंसगणि श्री जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे। नवमें पद्य में तपागच्छाधिपति श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने अनन्तहंसगणि को उपाध्याय पद प्रदान किया। दसवें पद्य में गच्छपति श्री सुमतिसाधुसूरि जो कि आगमों के ज्ञाता जम्बूस्वामी और वज्र स्वामी के समान थे। उन्हीं के शिष्य ने इस स्वाध्याय की रचना की है। अन्त में कवि कहता है कि जब तक सातों समुद्र, चन्द्र, सूर्य, मेरु, धरणी, मणिधारक सहस्रफणा सर्पराज विद्यमान हैं, तब तक तपागच्छ के प्रवर यतीश्वर श्री अनन्तहंस संघ का मङ्गल करें। - पद्य छः के प्रारम्भ में राजा वल्लभ भाषा उल्लेख है। सम्भवतः यह किसी देशी या राग-रागिणी का नाम होना चाहिए। श्री मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई लिखित जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास पैरा नं. 724 में लिखा है:- भाण राजा के समय में ईडर दुर्ग पर सोनीश्वर और पता ने उन्नत प्रासाद बनाकर अनेक बिम्बों के साथ अजितनाथ भगवान की प्रतिष्ठा विक्रम संवत् 1533 में करवाई थी। इसी भाण राजा के राज्यकाल में कोठारी श्रीपाल ने.सुमतिसाधु को आचार्य पद दिलवाया था। अहमदाबाद निवासी हरिश्चन्द्र ने राजप्रिय और इन्द्रनन्दी को आचार्य पद दिलवाया था। अहमदाबाद के मेघमन्त्री ने धर्महंस और इन्द्रहंस को वाचक पद, पालनपुर निवासी जीवा ने आगममण्डन को वाचक पद और ईडर के भाण राजा के मन्त्री कोठारी सायर ने गुणसोम को, संघपति धन्ना ने अनन्तहंस को एवं आशापल्ली के झूठा मौड़ा ने हंसनन्दन को वाचक पद दिलवाया था। श्री देसाई लिखते हैं कि इस ईडर में तीन साधुओं को आचार्य पद, छः को वाचक पद और आठ को प्रवर्तिनी पद पृथक्-पृथक् रूप से प्राप्त हुआ था। अर्थात् उस समय ईडर धर्म की नगरी बनी हुई थी। पैरा नं.७५८ में लिखा है:- अनन्तहंसगणि ने 1571 में दस दृष्टान्त चरित्र की रचना की थी, और पैरा नं. 738 में लिखा है कि संवत् 1570 में अनन्तहंस ने ईडरगढ़ चैत्य का वर्णन करते हुए ईला प्राकार चैत्य परिपाटी लिखी थी। . . इस प्रकार इस कृति से तीन महत्वपूर्ण तथ्य उभर कर आते हैं:- 1. अनन्तहंसगणि श्री जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे, 2. श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने अनन्तहंस को उपाध्याय पद प्रदान किया था और 3. सुमतिसाधुसूरि के शिष्य कनकमाणिक्यगणि ने इस स्वाध्याय की रचना की थी। तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ 67 के अनुसार श्री जिनमाणिक्यसूरि, श्री लक्ष्मीसागरसूरि के शिष्य थे। श्री लक्ष्मीसागरसूरि ५३वें पट्टधर थे। इनका जन्म 1464, दीक्षा 1477, पन्यास पद 1496, वाचक पद 1501, आचार्य पद 1508, गच्छनायक पद 1517 में प्राप्त हुआ था और सम्भवतः 1541 तक विद्यमान रहें। सुमतिसाधुसूरि ५४वें पट्टधर थे और इनको आचार्य पद श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने प्रदान किया था। इनका जन्म संवत् 1494, दीक्षा संवत् 1511, आचार्य पद 1518 और स्वर्गवास संवत् 1551 में हुआ था। विशेष कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। यह निश्चित है कि अनन्तहंसगणि को उपाध्याय पद विक्रम संवत् 1525 लेख संग्रह 229
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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