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________________ कनकमाणिक्यगणि कृत महोपाध्याय अनन्तहंसगणि स्वाध्याय अनन्त अतिशयधारी तीर्थङ्करों, गणधरों, विशिष्ट आचार्यों एवं महापुरुषों के नाम-स्मरण एवं गुणगान से हमारी वाणी पवित्र होती है। श्रद्धासिक्त हृदय से उद्भूत हमारी वाणी भी कर्मनिर्जरा का कारण बनती है। पूर्व में प्रायः करके ये समस्त गुणगान प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में हुआ करते थे, किन्तु समय को देखते हुए आचार्यों ने इन कृतियों को प्रादेशिक भाषाओं में भी लिखना प्रारम्भ किया। मरु-गुर्ज भाषा में रचित काव्यों को गहुँली, भास, स्वाध्याय, गीत आदि के नाम से कहा जाने लगा। प्रस्तुत कृति महोपाध्याय श्री अनन्तहंसगणि से सम्बन्ध रखती है। इस कृति का स्फुट पत्र प्राप्त . . हुआ है, जिसका विवरण इस प्रकार है:- साईज 2643, 1143 से.मी. है। पत्र संख्या 1, पंक्ति संख्या कुल 17 है। अक्षर लगभग प्रति पंक्ति 45 हैं। लेखन संवत् नहीं दिया गया है, किन्तु १६वीं सदी का अन्तिम चरण प्रतीत होता है। स्तम्भतीर्थ में लिखी गई है। भाषा मरु-गुर्जर है। कई-कई शब्दों पर अपभ्रंश का प्रभाव भी नजर आता है। इसके कर्ता श्री कनकमाणिक्यगणि हैं। इनके सम्बन्ध में किसी प्रकार का कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं है। महोपाध्याय श्री अनन्तहंसगणि प्रौढ़ विद्वान् थे, और श्री जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे। इस रचना के अनुसार तपगच्छपति श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया था और श्री सुमतिसाधुसूरि के विजयराज्य में विद्यमान थे। इस कृति के प्रारम्भ में उपाध्याय श्री अनन्तहंस गणि के गुण-गणों का वर्णन किया गया है। लिखा गया है कि - ये जिनशासन रूपी गगन के चन्द्रमा हैं, त्रिभुवन को आनन्द प्रदान करने वाले हैं, नेत्रों को आनन्ददायक कन्द के समान हैं। मान रूपी मद का निकन्दन करने वाले हैं। उपाध्यायों में श्रेष्ठ राजहंस हैं। सुधर्मस्वामी के समान नाम ग्रहण करने से नवनिधि प्राप्त होती है। इनके दर्शन से परमानन्द, सुख-सौभाग्य और सत्कार की प्राप्ति होती है। इनके गुण मेरु पर्वत के समान हैं और वचनामृत सोलह कलापूर्ण चन्द्रमा के समान हैं / स्वरूपवान हैं / ग्यारह अङ्ग को धारण करने वाले हैं। आगम, छन्द, पुराण के जानकार हैं / तपागच्छ को दीपित करने वाले हैं / कामदेव को जीतने वाले हैं, और मान-मोह का निराकरण करने वाले हैं। पूर्व ऋषियों के समान अनुपम आचार और संयम को धारण करने वाले हैं। जिस प्रकार आषाढ़ की घनघोर वर्षा से पृथ्वी प्रमुदित होती है, उसी प्रकार इनकी सरस वाणी रूपी झिरमिर से सब लोग प्रमुदित होते हैं। छ8 पद्य से कवि ऐतिहासिक घटना की ओर इंगित करता है। 228 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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