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________________ जैन स्तोत्र साहित्य : एक विहंगावलोचन भारतीय-साहित्य की अनेक विशेषताओं में से एक प्रमुख विशेषता उसका विशाल स्तोत्र साहित्य भी है। भारत विशाल देश है। अनेक जातियाँ और विभिन्न धर्मों के अनुयायी यहाँ निवास करते हैं। भारतीय संस्कृति के विकास में सभी का समान रूप से योगदान रहा है और संस्कृति और सभ्यता के आधारभूत साहित्य के विकास में भी वह किसी प्रकार कम नहीं कहा जा सकता। बौद्धों का साहित्य विशाल है, जैनों का भी। शैव, शाक्त और वैष्णव जो हिन्दुओं में गिने जाते हैं, उनके ज्ञान का अजस्र भंडार उसके साहित्य में लिपिबद्ध है। द्रविड़ भाषाओं का साहित्य किसी भी तरह भाषा और भाव की दृष्टि से आर्य भाषाओं के साहित्य से कम नहीं है। भील, संथाल, मुंडा आदि जातियों का लिखित साहित्य यद्यपि नहीं मिलता, किन्तु उनके प्राप्य लोक-साहित्य से उनके भावस्तर का अनुमान लगाया जा सकता है। यह कहना असंगत न होगा कि भारत में जो कुछ भारतीयता है, वह किसी विशेष जाति या धर्म की सम्पत्ति नहीं है, वरन् सभी जातियों, की सभी धर्मानुयायियों की सम्मिलित सम्पत्ति है। भारतीय विश्वास और विचारधारा पर भी सभी देशवासियों की छाप अमिट है और बहुमूल्य की कही जा सकती है प्रत्येक जाति की देन / सारे देश को यदि हम समुद्र कहें तो उसके गर्भ में बिखरे हुए जो मोती हैं, उनको जन्मस्थान के आधार पर वर्गों में विभक्त नहीं किया जा सकता। समान आभा वाले, दो मोतियों को देखकर यदि उनका पारखी भी यह कहे कि 'इसमें एक मोती तो खंभात की खाड़ी का है, अच्छा है, दूसरा फारस की खाड़ी से किसी तरह बह कर आ गया है, वह पहले से कम मूल्यवान है।' तो उसकी बात पर मूर्ख भी हँसने लगेगा। वस्तु की विशेषता उसके गुणों से प्रकट होती है, वह जन्मदाताओं के गुणों पर निर्भर नहीं रहती। भारतीय साहित्य के विषय में भी यह बात उतनी ही सत्य है। भारत के इस साहित्योद्यान में जाति-कुसुम भी हैं, रजनीगन्धा भी, यूथिका भी हैं, मल्लिका भी, पाटल भी हैं, कुमुद भी, बकुल भी हैं, रसाल भी। सभी की शोभा दर्शनीय है और सभी की सौरभ स्वर्गिक-आनन्द प्रदान करने में सक्षम है। एक ही सुरभि दूसरे का विरोध नहीं करती और न इस बात से ही उनका विरोध है कि किस लता में किसने पानी दिया है। हो सकता है उद्यानपाल ने केवल एक ही जाति के पुष्पों की अभिवृद्धि में रुचिपूर्वक भाग लिया हो, दूसरी जाति के पुष्पों की अभिवृद्धिं में उसके बालकों अथवा मित्रों का योग रहा हो; परन्तु प्रसून और उसके मकरन्द की शोभा व सुरभि पर तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भारतीय साहित्य की सम्पूर्णता में सभी जातियों का योग अवश्यमेव रहा है, किन्तु महत्व की दृष्टि से उनमें से किसी एक का योग किसी दूसरे के प्रयत्नों से कम नहीं है। बौद्ध, जैन, हिन्दू या किसी अन्य विचारधारा से किसी का मतभेद हो सकता है, परन्तु उनके सत्य ने महान् विचारकों के मन में अवतरित होकर भारतीय ही नहीं, विश्वभर के मानव-समान को मार्ग खोजने के लिए जो आलोक दिखाया है, उससे उस विचारधारा का विरोधी भी लाभान्वित हो सकता है। 18 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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