________________ मायीर्माश्रवं [?] देव सन्तुष्टो भव सर्वदा। उद्धारयसि लोकांस्त्वं संसाराम्भोनिधौ यतः॥४॥ माघः सम्पूर्णतां नीतो दोदराजेन निश्चितम् / भट्टारकशिरोरत्न-जगत्कीर्तिनिदेशतः॥ 5 // लक्ष्मीदासेन येनायं दोदराजः सुपादितः। पण्डितेन प्रसिद्धा सा प्रतिष्ठाकारि सिद्धिदा॥६॥ ___ अनादिन व वास्पुञ्ज यत्कृता ज्ञानसम्पदा। सन्ततं गोवितरिष्ट [?] निर्मलीकृतजन्मना // 7 // दोदराजेन टीकेयं लिखिता बुद्धिहेतवे। वाचकस्य सदा भूयान् मङ्गलं बुद्धिदायका॥८॥ कम्बुलक्ष्म्याः जगत्पूज्यः सात्विकानां शिरोमणिः। नेमिनाथः जिनपायान् मोहमल्ल विमर्दकः॥९॥ इसके अनुसार वि० सं० 1751, चैत्र शुक्ला 12, शुक्रवार के दिन भट्टारक जगत्कीर्त्ति के निर्देशानुसार पण्डित दोदराज ने माघ काव्य की टीका लिखी। दोदराज का विद्यागुरु लक्ष्मीदास था, जो पण्डित रूप में प्रसिद्ध था और जिसने सिद्धिदात्री प्रतिष्ठा करवाई थी। प्रशस्ति पद्यांक 5 'माघः सम्पूर्णतां नीतो दोदराजेन' तथा पद्यांक 7 'दोदराजेन टीकेयं लियिता बुद्धिहेतवे' से संदेहास्पद स्थिति भी निर्मित होती है कि दोदराज प्रतिलिपि कर्ता हो! किन्तु, मेरे अभिमतानुसार तो 'सम्पूर्णतां नीतो' 'टीकेयं लिखिता' तथा दो बार स्वयं के नाम-प्रयोग से निश्चित है कि दोदराज ने माघ काव्य पर स्वतन्त्र टीका का निर्माण किया था। .. प्रशस्ति पद्यों से दोदराज कवित्व शक्ति में प्रौढ़ विद्वान् हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। .. वी० पी० जोहराकेर की पुस्तक 'भट्टारक सम्प्रदाय' के अनुसार भट्टारक जगत्कीर्ति दिगम्बर परम्परा में दिल्ली-जयपुर शाखा में हुए हैं। इन जगत्कीर्ति का भट्टारक काल 1733 से 1770 रहा है। xxx इनके समय से सांगावत शहर [शायद सांगानेर] में पंडित लक्ष्मीदास हुए, का उल्लेख भी इस पुस्तक में है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि दोदराज सांगानेर या इसके आस-पास अर्थात् वर्तमान, जयपुर प्रदेश का ही निवासी हो। * * माघ काव्य पर श्वेताम्बर जैन विद्वानों/मुनियों द्वारा रचित अनेक टीकायें प्राप्त हैं, किन्तु दिगम्बर जैन विद्वान् द्वारा निर्मित का तो यह उल्लेख मात्र ही प्राप्त होता है। खेद है कि इस प्रशस्ति पत्र के अतिरिक्त इस टीका की पूर्ण या खण्डित प्रति अभी तक जैन भण्डारों में प्राप्त नहीं हुई है। भट्टारक जगत्कीर्त्ति प्रसिद्ध भट्टारक एवं विद्वान् थे। इनका जयपुर और अजमेर प्रदेश पर अधिक वर्चस्व रहा है। अतः संभव है, इन क्षेत्रों के ज्ञान भण्डारों/मन्दिरों में ही कहीं इसकी पूर्ण प्रति प्राप्त हो। जैन-विद्वानों का कर्तव्य है कि इस एक मात्र टीका को प्राप्त करने के लिये शोध अवश्य करें। - वास्तव में डॉ० डी० वी० क्षीरसागर साधुवाद के पात्र हैं कि जिन्होंने लेख लिखकर इस नव्य टीका की ओर इंगित किया है। [मणिभद्र पुष्प-२७] लेख संग्रह 167