________________ श्री कीर्तिरत्नसूरि वाचक हर्षविशाल गणि वाचक हर्षधर्म गणि वाचक साधुमन्दिर गणि वाचक विमलरंग गणि वा० कुशलकल्लोल वा० लब्धिकल्लोक वाचनाचार्य ललितकीर्ति गणि अर्थात् ललितकीर्त्ति, कीर्त्तिरत्नसूरि की परम्परा में उनके पश्चात् छठवें पट्ट पर हुए। यही गुरुपरम्परा ललितकीर्ति ने अगड़दत्त रास की रचना-प्रशस्ति में दी है। देखें, जैन गुर्जर कविओ प्रथम भाग, पृष्ठ 509-10 / इस अन्त:साक्ष्य प्रमाण के आधार पर स्पष्टतः सिद्ध है कि महोपाध्याय/वाचनाचार्य ललितकीर्ति का समय विक्रमीय १७वीं शती का उत्तरार्द्ध है और प्रशस्ति पद्य 8-9-10 के अनुसार तत्कालीन खरतरगच्छनायक श्री जिनराजसूरि [द्वितीय] जिनका जन्म सं० 1674, दीक्षा सं० 1657, आचार्य पद सं० 1674 और स्वर्गवास सं० 1700 है - के विजय राज्य में विचरण करते थे। अतः लेखक डॉ० क्षीरसागर द्वारा समय के सम्बन्ध में चर्चित ऊहापोह स्वतः ही निरस्त हो जाता है। जोधपुर प्रतिष्ठान संग्रह की उक्त प्रति ललितमाघ दीपिका से सम्बन्धित 140 पत्रात्मक ही है। उक्त प्रति का १४१वाँ पत्र ललितमाघदीपिका का न होकर, पं० दोदराज प्रणीत माघकाव्य-टीका की रचना प्रशस्ति का है। न जाने किस प्रकार, किसी की अनभिज्ञता एवं असावधानी के कारण यह अन्तिम पत्र नाम-साम्यता के कारण इस प्रति के साथ संलग्न हो गया? इस पत्र से यह तो निश्चित है कि दोदराज रचित 'टीका की प्रति के 141 पत्र थे। प्रस्तुत लेख के लेखक भी इस पत्र को उक्त प्रति से भिन्न मानते हुए लिखते हैं: "परन्तु, यह अन्तिम पत्र कागज की दृष्टि से नवीन प्रतीत होता है तथा इसका आकार भी भिन्न है। पुनश्च 140 पत्रों में उपयुक्त [1 प्रयुक्त] पंच पाठ शैली का निर्वाह इस पत्र पर नहीं किया गया है तथा हस्तलेख की असमानता भी दृष्टिगोचर है।" उक्त १४१वें पत्र पर जो प्रशस्ति दी गई है, वह निम्नांकित है: चन्द्रबाणाश्वसोमेन [1751] युक्ते सम्वत्सरे वरे। चैत्रार्जुनीयपक्षस्य द्वादश्यां शुक्रवारके // 1 // परोपकारं सततं बिभर्ति, यत्सङ्गते बुद्धिरियर्ति पारम्। तमन्वहं लोकवरं प्रवन्दे, सज्ज्ञानमूर्ति जगदादिकीर्त्तिम्॥२॥ अन्तः शत्रुसमूहो या हतः क्षान्त्यादिना शुभः / जगत्कीर्तिर्गुरुर्जीयाद् येनाऽसौ लोकपूजितः॥३॥ लेख संग्रह 166