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________________ श्री जिनमहेन्द्रसूरि श्रीपूज्य जिनमहेन्द्रसूरि को यह विज्ञप्ति पत्र लिखा गया था अतः श्री जिनमहेन्द्रसूरि का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: अलाय मारवाड़ निवासी सावणसुखा गोत्रीय शाह रूपजी की पत्नी सुन्दरदेवी के ये पुत्र थे। जन्म सम्वत् 1867 था। मनरूपजी इनका जन्म नाम था। सम्वत् 1885, वैशाख सुदी 13, नागौर में इनकी दीक्षा हुई थी और दीक्षा नाम था - मुक्तिशील। दीक्षानंदी के अनुसार इनकी दीक्षा 1883 में सम्भव है। गच्छनायक श्री जिनहर्षसूरि का सम्वत् 1892 में स्वर्गवास हो जाने पर मिगसर बदी 11, सोमवार, 1892 में मण्डोवर दुर्ग में इनका पट्टाभिषेक हुआ। यह महोत्सव जोधपुर नरेश मानसिंह जी ने किया था, और उस महोत्सव के समय 500 यतिजनों की उपस्थिति थी। यहीं से खरतरगच्छ की दसवीं शाखा का उद्भव हुआ। मण्डोवर में गद्दी पर बैठने के कारण यह शाखा मण्डोवरी शाखा कहलाई। इधर यतिजनों में विचार-भेद होने के कारण बीकानेर नरेश के आग्रह पर जिनसौभाग्यसूरि गद्दी पर बैठे। श्री जिनमहेन्द्रसूरि के उपदेश से जैसलमेर निवासी बाफणा गोत्रीय शाह बहादरमल, सवाईराम, मगनीराम, जौंरावरमल, प्रतापमल, दानमल आदि परिवार ने शत्रुजय तीर्थ का यात्रीसंघ निकाला था। इस संघ में 11 श्रीपूज्य, 2100 साधु-यतिगण सम्मिलित थे। इस संघ में सुरक्षा की दृष्टि से चार तोपें, चार हजार घुड़सवार, चार हाथी, इक्यावन म्याना, सौ रथ, चार सौ गाड़ियाँ, पन्द्रह सौ ऊँट साथ में थे। इसमें अंग्रेजों की ओर से, कोटा महारावजी, जोधपुर नरेश, जैसलमेर के रावलजी और टोंक के नवाब आदि की ओर से सुरक्षा व्यवस्था थी। इस यात्री संघ में उस समय 13,00,000/- रु० व्यय हुए थे। यही बाफणा परिवार पटवों के नाम से प्रसिद्ध है और इन्हीं के वंशजों ने उदयपुर, रतलाम, इंदौर, कोटा आदि स्थानों में निवास किया था और राजमान्य हुए थे। इनके द्वारा निर्मित कलापूर्ण एवं दर्शनीय पाँच हवेलियाँ जैसलमेर में आज भी भारतवर्ष में पटवों की हवेलियों के नाम से प्रसिद्ध हैं और अमरसागर (जैसलमेर) के दोनों मंदिर इसी पटवा परिवार द्वारा निर्मित है। इसी पटवा परिवार ने लगभग 360 स्थानों पर अपनी गद्दियाँ स्थापित की थीं और गृहंदेरासर और दादाबाड़ियाँ भी बनाई थीं। इन्ही के वशंजों में सर सिरहमलजी बाफणा इंदौर के दीवान थे, श्री चाँदमलजी बाफणा रतलाम के नगर सेठ थे और दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंहजी कोटा के राज्यमान्य थे। उदयपुर में भी यह परिवार राज्यमान्य रहा है। वर्तमान में इन पाँचों भाइयों के वंशज भिन्न-भिन्न स्थानों इंदौर, रामगंजमंडी, झालावाड़, कलकत्ता आदि में और रतलाम-कोटा परिवार के बुद्धसिंहजी बाफणा विद्यमान हैं। इस तीर्थ-यात्रा का ऐतिहासिक वर्णन जैसलमेर के पास स्थिति अमर-सागर में बाफणा हिम्मतराजजी के मंदिर में शिलापट्ट पर अंकित है। इस शिलापट्ट की प्रशस्ति श्री पूरणचन्दजी नाहटा द्वारा सम्पादित जैन लेख संग्रह, तृतीय खण्ड, जैसलमेर के लेखांक 2530 पर प्रकाशित है। स्वनामधन्य मुंबई निवासी सेठ मोती सा० के अनुरोध पर जिनमहेन्द्रसूरिजी बम्बई पधारे और सम्भवतः भायखला दादाबाड़ी की प्रतिष्ठा भी इन्होंने की थी। सम्वत् 1893 में शत्रुजय तीर्थ पर सेठ मोती सा० द्वारा कारित मोती-वसही टोंक की प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी। सम्वत् 1901, पौष सुदि पूनम को रतलाम में बाबा साहब के बनवाये हुए 52 जिनालय मंदिर की प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी। इस प्रतिष्ठा के समय इनके साथ 500 यतियों का समुदाय था। सम्वत् 1914 भाद्रपद कृष्णा 5 को मण्डोवर में लेख संग्रह 183
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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