________________ महाकाव्य की रचना की है। इस काव्य पर विवरण अर्थात् दुर्गम शब्द एवं स्थलों का मेघविजयजी ने स्पष्टीकरण किया है। रचना संवत् का निर्देश नहीं है किन्तु 1706 की लिखित हस्तलिखित प्रति प्राप्त होने ये यह स्पष्ट है कि इसकी रचना इसी के आस-पास हुई होगी। यह ग्रन्थ जैन साहित्य संशोधक समिति की तरफ से प्रकाशित हो चुका है। 36. वृत्तमौक्तिक दुर्गमबोध - छंद-ग्रन्थ, भट्ट चन्द्रशेखर प्रणीत वृत्तमौक्तिक नामक छन्दोग्रन्थ के प्रथम खण्ड के प्रथम गाथा प्रकरण के पद्य 51 से 83 तक अर्थात् 36 पद्यों की टीका है। इन 36 पद्यों में प्रस्तार का निरूपण हुआ है। प्रस्तार जैसे दुर्गम विषय को मेघविजयजी ने रोचक एवं सरल बना दिया है। इस टीका की रचना 1755 में भानुविजय' के पठनाई हुई है। इसकी एकमात्र प्रति स्वयं मेघविजयजी द्वारा लिखित मेरे संग्रह में है। यह टीका मेरे द्वारा संपादित 'वृत्तमौक्तिक' में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित हो चुकी है। 37. भक्तामरस्तोत्र टीका - आचार्य मानतुंगसूरिप्रणीत भक्तामरस्तोत्र पर यह टीका है। इस टीका की प्रति मेरे देखने में नहीं आई है। 38. पञ्चतीर्थस्तुति सटीक - इसका उल्लेख दिग्विजयमहाकाव्य की प्रस्तावना में अंबालाल प्रेमचंद शाह ने किया है। स्तोत्र के प्रत्येक पद्य में 5 अर्थ हैं जिनमें ऋषभ, शान्ति, पार्श्व और महावीर की स्तुति की गई है और इसकी टीका की भी रचना स्वयं ने ही की है। ___39. देवा प्रभो स्तवावचूरि - जयानन्दसूरि रचित स्तोत्र पर यह अवचूरि है। इसकी रचना सं० 1724 में हुई है। इसकी प्रति वढवाण के ज्ञान भंडार में प्राप्त हैं। स्तोत्र 40. चतुर्विंशतिजिनस्तव - कवि ने एक-एक पद्य के द्वारा चौबीस तीर्थंकरों की क्रमशः स्तुति की है। रचना यमकालंकारप्रधान है। इसकी एक मात्र प्रति मेरे संग्रह में है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है:आदि- देवाधिदेवाधिकभाग्यलक्ष्मी, नाभेयनाभेयरुचस्तनोस्ते। भावेन भावे न विभावयेत, केनाधिकेनाधिजगत्सता नो॥१॥ अन्त- एवं श्रीजिननायकाः स्तुतिपथं नीताश्चतुर्विंशतिः श्रीनाभेयमुखाः सुखाय सुमुखा देवार्यदेवान्तिमाः। सूरिश्रीविजयप्रभप्रभुपदप्राप्तोदये सन्त्वमी, मेघाख्ये सकृपाः कृपादिविजयप्राज्ञेन्द्रशिष्ये मयि // 28 // 41. आदिजिनस्तोत्र - यह स्तोत्र अपूर्ण रूप में ही राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, ग्रं० नं० 20415 में प्राप्त हैं। आद्यन्त इस प्रकार है: स्वस्तिश्रियाभं प्रतिरूपरूपाः, सर्वेऽपि देवासुरमर्त्यभूपाः। तासां विवाहस्थितिहेतवेयं, प्रादुश्चकाराऽऽ दिजिनं विधाता॥ 1 // 1. समित्यर्थाश्वभूवर्षे प्रौढिरेषाऽभवत् श्रिये भान्वादिविजयाध्यायहेतुतः सिद्धिमाश्रिता॥ (टीका प्रशस्तिः) 144 लेख संग्रह