________________ तेषां श्रीजयवन्तसंज्ञऋषयः शिष्या मनीष्युत्तमा स्तेषामन्तिषदश्च देवविजयाः संविज्ञविज्ञोत्तमाः॥१॥ तत्पादाम्बुजचञ्चरीकसदृशश्चारित्रचूडामणेः, प्राप्यार्थं विनयादिसद्विजयतः श्रीवाचकाधीश्वरात्। सर्गेऽत्र प्रथमेऽतनिष्ट विबुधः श्रीनैषधस्यादरादर्थात्कल्पलतां जिनादिविजयष्टीकामिति श्रेयसे॥२॥ ग्रन्थान. वृत्ति 1472 द्वितीय सर्गान्त पुष्पिका तत्पादपद्मभ्रमरायमाणः, शिष्यो जिनादिविजयोऽतनिष्ट। . द्वितीयसर्गस्य हि नैषधाख्ये, काव्येऽर्थतः कल्पलतां सुटीकाम्॥२॥ इति श्री तपागच्छीय पण्डितश्रीदेवविजयशिष्य पं. जिनविजयगणिविरचितायामर्थकल्पलतायां नैषधवृत्तौ द्वितीयः सर्गः। ग्रन्थाग्र वृत्ति 928 -एकविंशतिसर्गान्त-पुष्पिका विश्वार्यहीरविजयाह्वयसूरिशिष्याः, मेधाविनोऽत्र ऋषयो जयवन्तसंज्ञाः। तेषां च देवविजया विबुधास्तदीयः, शिष्यो जिनादिविजयो विबुधो विशिष्यः॥१॥ श्रीवाचकाद विनयसविजयादधीत्य, श्रीनैषधीयमथ तस्य चकार टीकाम्। तस्यां समर्थसुगमार्थसमर्थितायां, सर्गः समाप्तिमभजत्स्वयमेकविंशः॥२॥ अंकित पुष्पिकाओं के अनुसार नैषधीयचरित की अर्थकल्पलता टीका के प्रणेता जिनविजय तपागच्छीय जगद्गुरु आचार्यप्रवर श्री हीरविजयसूरिजी के शिष्य मनीषिपुंगव जयवन्त ऋषि के पौत्र शिष्य थे और संविज्ञोत्तम देवविजय के शिष्य थे। जयवन्त ऋषि और देवविजय की कोई रचना अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। जैन रामायण और दानादिकुलक के टीकाकार देवविजय श्री राजविजय के शिष्य होने से इनसे भिन्न हैं। जिनविजय की भी इस टीका के अतिरिक्त एक अन्य कृति और प्राप्त है, वह है सं० 1710 में रचित कल्याणमन्दिर स्तोत्र टीका। टीकाकार जिनविजय ने सर्गान्त पुष्पिकाओं में विनयविजयोपाध्याय का विशिष्ट श्रद्धा-भक्तिपूर्वक स्मरण करते हुए लिखा है:- "चारित्रचूडामणे: प्राप्यार्थ विनयादिसद्विजयतः श्रीवाचकाधीश्वरात्" "श्रीवाचकाद् विनयसद्विजयादधीत्य श्रीनैषधीयम्।" इस अवतरण से स्पष्ट है कि तत्कालीन ख्यातिप्राप्त प्रौढ़ विद्वान्, लोकप्रकाश, कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, हैमलघुप्रक्रिया, शान्तसुधारस, श्रीपालरास आदि अनेकों ग्रन्थों के प्रणेता श्री विनयविजयोपाध्याय के नैकट्य में रहकर जिनविजय ने शिक्षण प्राप्त किया था। नैषध काव्य का अध्ययन भी किया था। 160 लेख संग्रह