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________________ चरण प्रतीत होता है। किन्तु दुर्भाग्य से यह प्रति किंचित् अपूर्ण है। पत्रांक 583 A पर नैषध के २२वें सर्ग के १५०वे पद्य की व्याख्या चल रही है: "स्वर्भानु० / स्वर्भानु प्रतीति तुषारद्युतिः देवश्चन्द्रः नोऽस्माकं तुष्टये सन्तु...........भवतु इत्यन्वयः। * कथंभू० तुषारद्युतिः? प्राप्तः सहस्रधारकलशश्रीः प्राप्ता सहस्रधारश्चासौ कलशश्च सहस्रधारकलशः, सहस्रधारकलशस्य श्रीसहस्रधारकलशश्री:, प्राप्ता सहस्रधारकलश श्रीर्येन स तथा। कस्मिन्? 'पुष्पेष्वासनतत्प्रिया०' पुष्पे परिणयानन्दाभिषेकोत्सवे तस्य कामस्य प्रिया तत्प्रिया, पुष्पेष्वासनकामश्च तत्प्रिया च पुष्पेष्वासनतत्प्रिये, पुष्पेवासनतत्प्रिययोः परिणयः विवाहः पुष्पेष्वासनतत्प्रियापरिणयः, पुष्पेष्वासनतत्प्रिया परिण....." - उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि २२वें सर्ग के १५०वें श्लोक की आधी टीका, सर्गान्त का १५१वाँ पद्य "श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं" की व्याख्या और अन्तिम प्रशस्ति स्वरूप शेष 4 पद्यों की व्याख्या तथा टीका रचना प्रशस्ति मात्र अंश ही इस प्रति में अप्राप्त है। अर्थात् 3-4 पत्र ही अप्राप्त हैं। उक्त प्रति के प्रत्रांक 583 B का हिस्सा रिक्त है जिस पर लिखा है:- " // श्रीरामः॥ काव्यं नैषधटीका पुस्तकं किञ्चित् खण्डितम् पत्र 583 ग्रन्थ 24000" इससे स्पष्ट है कि इस प्रति के प्रतिलिपिकार को प्रतिलिपि करते समय पूर्व प्रति के अन्तिम तीन-चार पत्र प्राप्त नहीं हए थे। टीका का अन्तिामंश प्राप्त न होने से इस टीका की रचना किस संवत् में किस स्थान पर और किसके आग्रह पर हुई एवं इसका संशोधन किसने किया? आदि की जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती। फिर भी टीकाकार जिनविजय ने मंगलाचरण पद्यों और सर्गान्त पुष्पिकाओं में जो अपना परिचय दिया है वह इस प्रकार है: . मङ्गलाचरणम् स्वस्तिश्रियं वितनुतात् श्रीनाभेयजिनाधिपः। विघ्नान्धकारमार्तण्डः श्रेयस्तरु बलाहकः॥ 1 // शिवतातिर्जिनः शान्तिर्वज्रिणा विधिना दिवि। यो मुहुः संस्कृत सोऽस्तु सर्वारिष्टक्षयाय वः॥२॥ श्रीमन्नेमिर्जिनाधीशः स्मराम्भोधिघटोद्भवः। विद्वज्जनमनोमोदप्रदो भूयात् सतां मुदे // 3 // पार्श्वः प्रौढयशो नित्यं धरणेन्द्राद्युपासितः। जगतीभूषणां नित्यं भूयात् सिद्धिप्रदः सताम्॥४॥ सैद्धार्थिः श्रीमहावीरः कुर्यात्क्षेमं क्षमाकरः।। कल्पितानल्पसंकल्पकल्पवृक्ष इवाङ्गिनाम्॥५॥ सरस्वतीं नमस्कृत्य सर्वबुद्धिप्रदायिनीम्। तरणीं पततां घोरे जनानां जाड्यवारिधौ॥ 6 // करोमि स्वगुरोः पादप्रसादात् प्रौढतो मुदा। श्रीमन्नैषधकाव्यस्य वृत्तिं बालावबोधिनीम्॥७॥ ___प्रथमसर्गान्त पुष्पिका / श्रीवीरस्य यथाक्रमेण गुरवः पट्टे बभूवुर्विभोः, __ श्रीसूरीश्वरहीरहीरविजयाः श्रीमत्तपागच्छपाः, लेख संग्रह 159
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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