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________________ . इनका जन्म पाञ्चाल देशान्तर्गत थाना नगर में विक्रम संवत् 1461 में हुआ। इनके पिता श्रीपाल के वंशज श्रेष्ठि देवसी थे और माता का नाम लाखणदे था। किसी पट्टावली में जन्म संवत् 1461 प्राप्त होता है तो किसी में 1469 / इनका जन्मनाम धनराज था। माता द्वारा केसरीसिंह का स्वप्न देखने के कारण दूसरा नाम केसरी भी था। संवत् 1475 में जयकीर्तिसूरि के पास आपने दीक्षा ग्रहण की और दीक्षा नाम जयकेसरी रखा गया। संवत् 1494 में जयकीर्तिसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान कर जयकेसरीसूरि नाम रखा। भावसागरसूरि के मतानुसार चांपानेर नरेश गङ्गदास के आग्रह से इनको आचार्य पदवी दी गई थी। जयकेसरीसूरि भास में 'रंजण गंग नरिन्द' प्राप्त होता है। संवत् 1501 में चाम्पानेर में आपको गच्छनायक पद प्राप्त हुआ और संवत् 1541 पोस सुदी 8 के दिन खम्भात में इनका स्वर्गवास हुआ। चांपानेर नरेश गङ्गदास तो इनके भक्त थे ही, गङ्गदास के पुत्र जयसिंह पताई रावल भी इनका भक्त था। लावण्यचन्द्र की पट्टावली के अनुसार सुलतान अहमद (महम्मद बेगड़ा) भी आपके चमत्कारों से प्रभावित था। सायला के ठाकुर रूपचन्द और उनके पुत्र सामन्तसिंह ने जीवन दान पाकर जैन धर्म स्वीकार किया था। जम्बूसर निवासी श्रीमाल कवि पेथा भी आपके द्वारा प्रतिबोधित था। आपके द्वारा विक्रम संवत् 1501 से लेकर 1539 तक 200 के लगभग प्रतिष्ठित मूर्तियाँ प्राप्त होती है। जयकेसरीसूरि की 2 ही कृतियाँ प्राप्त होती है:- 1. चतुर्विंशति-जिन-स्तोत्राणि और 2. आदिनाथ स्तोत्र। चतुर्विंशति-जिन-स्तोत्राणि मेरे द्वारा सम्पादित होकर आर्य जयकल्याण केन्द्र, मुम्बई से विक्रम संवत् 2035 में प्रकाशित हो चुकी है। इस कृति को देखते हुए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि जयकेसरीसूरि प्रौढ़ विद्वान् थे। उनकी गुण गाथा को प्रकट करने वाली अनेकों कृतियाँ प्राप्त हो सकती हैं। मुझे केवल चार कृतियाँ ही प्राप्त हुई, जो कि एक ही पत्र पर लिखी हुई हैं / लेखन संवत् नहीं हैं किन्तु लिपि को देखते हुए १६वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखी गई हो ऐसा प्रतीत होता है। . प्रथम कृति भास के रूप में है, जिसमें श्री जीराउली पार्श्वनाथ को नमस्कार कर अञ्चलगच्छ नायक जयकेसरीसूरि के माता-पिता का नामोल्लेख है। इसी के पद्य 5 में 'रञ्जण गङ्ग नरिन्द' का उल्लेख भी है। दूसरी भास नामक कृति कवि आस की रचित है। नगर में पधारने पर विधिपक्षीय जयकेसरीसूरि का वधावणा किया जाता है, और संघपति महिपाल-जयपाल का उल्लेख भी है। तीसरी कृति गीत के नाम से है। इसके प्रणेता हरसूर हैं, और इसमें जयकीर्तिसूरि के पट्टधर जयकेसरीसूरि के नगर प्रवेश का वर्णन किया गया है। चौथी कृति भास नामक है। जिसमें श्राविकाएँ नूतन शृङ्गार कर जय-जयकार करती हुई, मोतियों का चौक पुराती हुई, उनका गुणगान करती हैं / आचार्य को देखकर नेत्र सफल हुए हैं। इक्षु, दूध-शक्कर, के समान आचार्य की वाणी को उपमा प्रदान की गई है। आचार्य को जङ्गम गुरुओं में गोयम गणधर, शील में जम्बूकुमार, मुनीश्वरों में वज्रकुमार आदि की उपमा देते हुए गुरु गुण से पाप भी पलायन कर जाते हैं, ऐसा उल्लेख है। भक्तजनों के आह्लाद के लिए चारों लघु कृतियाँ प्रस्तुत लेख संग्रह 225
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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