________________ अञ्चलगच्छीय श्री जयकेसरीसूरि भास सद्गुरु आचार्यों और गीतार्थप्रवरों के गुणगौरव का यशोगान और स्तुति करना यह साधुजनों का कर्तव्य है। जो कि गीत, भास, स्तुति, रास, इत्यादि के रूप में प्राप्त होते हैं। गुरुगुण-षट्पद, जिनदत्तसूरि स्तुति, साह रयण कृत जिनपतिसूरि धवल गीत, कवि भत्तउ रचित जिनपतिसूरि गीत, पहराज कृत जिनोदयसूरि गुण वर्णन, कविपल्ह कृत जिनदत्तसूरि स्तुति, नेमिचन्द्र भण्डारी रचित जिनवल्लभसूरि गुरु गुणवर्णन, सोममूर्ति रचित जिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाह वर्णन, मेरुनन्दन रचित जिनोदयसूरि विवाहलउ आदि १२वीं शताब्दी से अनेकों कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इसी शृङ्खला में अञ्चलगच्छीय श्री जयकेसरीसूरि से सम्बन्धित भास और गीत संज्ञक लघु चार रचनाएँ स्फुट पत्र में प्राप्त है। श्री जयकेसरीसूरि १५वीं के अञ्चलगच्छीय प्रभावक आचार्य हुएं हैं। श्री अञ्चलगच्छ की स्थापना आर्य रक्षितसूरि के द्वारा संवत् 1169 में हुई है। इसी आर्यरक्षितसूरि की परम्परा में श्री जयकेसरीसूरि हुए हैं। जिनकी वंश परम्परा इस प्रकार है: आर्यरक्षितसूरि जयसिंहसूरि धर्मघोषसूरि महेन्द्रसिंहसूरि सिंहप्रभसूरि अजितसिंहसूरि देवेन्द्रसिंहसूरि धर्मप्रभसूरि सिंहतिलकसूरि महेन्द्रप्रभसूरि मेरुतुङ्गसूरि जयकीर्तिसूरि जयकेसरीसूरि इस प्रकार आर्यरक्षितसूरि की परम्परा में बारहवें पाट पर इनका स्थान पाया जाता है। श्री जयकेसरीसूरि के सम्बन्ध में प्रयोजक पार्श्व ने अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन नामक पुस्तक में पृष्ठ 267 से 298 पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इसी पुस्तक के आधार पर प्रमुख-प्रमुख घटनाओं का यहाँ उल्लेख कर रहे हैं। 224 लेख संग्रह